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पत्र पत्रिकाओं के प्रादुभाष मालाचना का मूत्रपात प्रारम्भ हुआ। आलोचना का जो चलन हिन्दी साहित्य में चली उसमे आलोचनात्मक निबन्धों का ही रूप सर्वप्रथम प्रतिष्ठित हुआ। छोटी छोटी टिप्पणिया जिनमे कुछ सामयिक समाचारो के ऊपर आलोचनाये रहती थी बड़ी पटुता में छपनी थी। इन टिप्पणियां में देश के समय समय के आख्यान हैं जिनका हमने खण्ड ६ के अन्तर्गत उदाहरण के लिए रख दिया है।

साहित्यिक समालोचना का सूत्रपात प्रेमघन जी ने हिन्दी साहित्य में सर्व प्रथम किया। "समालोचना का सूत्रपात हिन्दी में एक प्रकार से चौधरी साहब ने ही किया। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छा तरह विवेचन कर के उसके गुण-दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्हीने चलाई।"रामचन्द्र शुक्ल—

प्रेमघन जी के साथ प॰ रामचन्द्र शुक्ल का घरेलू सम्बन्ध था। जिस समय आनन्द कादम्बिनी अंतिम बार निकलती थी उस समय पं॰ रामचन्द्र शुक्ल मिरजापुर मिशन स्कूल में ड्राइङ्ग मास्टर थे ओर शहर के पास हो रमई पट्टी में रहते थे। प्रेस में यूफ ठीक करने का कार्य वे वैतनिक रूप से करते थे। उसी समय की जा उनकी धारणा थी उसका चित्रण मेमघन मर्वस्व भाग ४ की भूमिका में उन्होंने किया है। पर शुक्ला ने प्रेमघन जी की आलोचना पद्धति तथा उनकी शैली पर पूर्ण प्रकाश नहीं डाला।

प्रेमघन जी के समालोचना का सूत्रपात हमे सम्वत् १९३८ बै॰ में आनन्द कादम्बिनी की संख्या ४, ५ में "दृष्य रूपक या नाटक' शीर्षक लेख के अन्तर्गत मिलता है। यहीं से हमे आपको आलोचना का बीजाकर दिखाई पड़ता है। आपने इस लेख में जो नाटको का बालोचनात्मक इतिहास लिखा है उससे आपका आलोचना का ऐतिहासिक समीक्षा Historical Crntuousm. पद्धति का हमे पूर्णश्रामास मिल जाता है, उदाहरणार्थ— "कारण यह कि कोई न तो कुछ वृत्त दे, न प्रस्तावना स्पष्ट रीति से लिखे और लेख का ढग निराला रखते, कितने ऐसे कि दोनो क्या बल्कि अपने नाम को भी मिला तीना खा जाते, बहुतेरे पात्रों के नाम का भी अनुवाद करके श्राप रूप बन जाते, और पूर्व कविकीर्ति का कलेवा करना चाहते"। इस लेख में प्रमधन जी ने सत्कालीन नाट्य माहित्य के लेखकों की श्रालोचना की है।