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हमारे धार्मिक, सामाजिक वा व्यावहारिक संशोधन

यजमानों की अश्रद्धा कराते हैं! इनमें कहाँ पर कितने है जो पुरोहित की उपाधि पाने के योग्य हैं? कितने अपने ब्राह्मणोचित धर्म का पालन करते, कितने पुरोहित के वेष में रहते, वा स्वधर्म रक्षा का कुछ भी यत्न सोचते? विरुद्ध इसके कि नाना प्रकार के नीच व्यसन, दुराचार और कुत्सित कृत्य में लीन रहते जिनके दर्शन मात्र से कठिन अश्रद्धा का उद्रेक होता! फिर जहाँ के धर्माधिकारी ऐसे हैं वहाँ उनके यजमानों को इनसे धर्म विषय में क्या सहायता मिल सकती है वा श्रद्धा की वृद्धि हो सकती है, समझना सहज है। सुतराम इनसे धर्म, जाति वा देश का क्या उपकार है, वा होगा? यदि ये लोग सामान्य हमारे अन्य धर्म कार्यों में उद्योग न करे तो भी कुछ विशेष चिन्ता नहीं, परन्तु अपनी दशा तो सुधारें, अपने जीविकास्थल वा निज धर्म स्थान की तो रक्षा करें अपने आपको उस पद के योग्य तो रक्खें और कुछ नहीं तो अपने कृत्य से समन जाति को कलंकित करने के कार्य तो न करें।

यद्यपि इनमें से अधिकांश बातें शेष उन दोनों समूहों में भी वैसी ही आक्षेप योग्य और शोकदायक हैं, तो भी इनमें उनमें आकाश और पाताल का अन्तर है क्योंकि ये लोग तो यजमानों से दान दक्षिणा में द्रव्य पाते जिसमें केवल उन्हीं का स्वस्व है, उनके व्यय का उन्हें पूर्ण अधिकार है, चाहे जैसे क्यों न करें, तथा उनका स्वरूप भी दान श्रद्धा के न्यूनाधिक्य का कारण हो सकता है; और यही दशा, केवल विशुद्ध दीक्षागुरु वा कनफुकवा ब्राह्मणों की है जो किसी महापण्डित वा महात्मा के वंश में तो जनमें और आप केवल वही दो चार दस मन्त्र पढ़े हैं कि जिसको उन चेलों को देकर चेला बनाते, दम्भार्थ केवल पूजा का लम्बा चौड़ा आलवडाल फैलाते, अपने हाथ पका कर खाते, और ब्राह्मणों ही से अपने जूठे बरतन मजवाते, तथा चौका देकर पानी पीते हैं। परन्तु अन्य गुरु गोस्वामी लोग, पुजारी, अधिकारी और पण्डें तथा वैरागी महन्त लोग जो अपनी भेट और पूजा के अतिरिक्त देवधन के भण्डारी, अथवा अन्य धर्मार्थ अर्पित द्रव्य के भी कोषाध्यक्ष हैं, अत्यन्त ही आक्षेप योग्य हैं, यजमान तो देवस्थान के निकट जलाशय निर्माण के अर्थ, अन्नसत्र (सदावर्त) चलाने के लिये, देवता के कुछ शिशे भोगराग के अर्थ द्रव्य देता; और उस रुपये से बाबा जी के माध्यम से कार्य किये जाते, पुजारी जी के नाम से वही रुपया बैंकों और महाजनों की कोठियों में वियाज कमाने के लिए जमा किया जायगा! और