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देश के अग्रसर और समाचार पत्रों के सम्पादक

अपनी जीविका के अर्थ इस दरिद्र देश में नाना उपायें करनी पड़ती है, कभी भी कुछ कर सकते हैं। समग्र देशों में सामाजिक सुधार का भार धनिकों पर रहता है, उन्हीं के हाथ डालने से उद्धार की आशा सम्भव होती है। यदि यह अपने हाथों में देश के बालकों की शिक्षा का भार ले लें, कि जिसका लेना परमावश्यक है, तो फिर इस प्रकार गिड़गिड़ाने, और दोषारोपण करने की आवश्यकता ही जाती रहे। बिना पतवार की नौका जैसे मन मानी बहती है, ठीक उसी प्रकार शिक्षा की दशा इस देश में है। पराधीनता के कारण, देशियों के उत्साह हर विषयों में जाते रहे इन्हें सब कुछ असम्भव समझ पड़ता है। इनके जी में यह निश्चय हो गया है कि हमारा आशा पालने का काम है हम हुक्मी बन्दे हैं। आज्ञा देने वाले हिन्दू को छोड़ और सब है।

तो नवयुवकों के सुधारने का भार भी उन्हीं लोगों पर है जो घर बैठे पछताते और जो कुछ हो रहा है उसे ईश्वरेच्छा मानते और कुछ करने को जी नहीं करते। आगामि में देश की दशा को सुधारने और इसके आगम के बनाने की आशा केवल नवयुवकों से है। इन्हीं की योग्यता पर सब कुछ निर्भर है। यदि इनकी यथोचित शिक्षा न हुई और यह न सुधरे तो फिर हिन्दू मत की क्या दशा होगी, थोड़े बिलायती परिपाटी पर जाने वालों को देख अनुभव हो सकता है। अभी मन्द्राज प्रदेश में एक स्थान पर एक हिन्दू के क्रिस्तान हो जाने पर वहाँ वालों ने अपना विलग विद्यालय खोलने की इच्छा की है और वह लोग अब अपने लड़कों को पादरी स्कूल में जाने न देंगे। यही हमारे देश के श्रेष्टों को करना उचित है। संसार के जितने मत है उनके अनुयायी उसके विस्तार के निमित्त रात्रि दिवस परिश्रम कर रहे हैं। कितना धन केवल इसीके निमित उनका व्यय हो रहा है कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ऐसे कम लोग हैं जो क्रिस्तानों को करोड़ों रुपया खोते इस देश में न देखें हों। वह समझते हैं कि उनके मत को जो नहीं मानते बहके हुये हैं, उनका उद्धार न होगा, इसी से वह परिश्रम करते हैं धन खोते हैं, कभी कभी अपना जी देते नहीं डरते, परन्तु बसुधा को कुटुम्ब मान उसके उद्धार के अर्थ वद्ध परिकर हैं। इधर अपनी ओर दृष्टि फेरिये तो अपने ही बालकों और भाइयों की कुछ चिन्ता हिन्दुओं को नहीं है। न कोई धर्म शिक्षक है, न कोई धर्म की पुस्तकें छपती हैं, न हिन्दूमत के निमित्त कोई कार्यवाही होती है। यदि हमें अन्य मतावलम्बियों को हिन्दू नहीं बनना है तो हमैं लड़कों और भाइयों को नास्तिक बनाने की इच्छा भी नहीं है। कोई तो संसार को अपना