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प्रेमघन सर्वस्व

सबसे जायँगे, उसी बहू या बेटी को उसी घर के पुत्र और दामाद से सुन्दर शास्त्राज्ञानुसार प्रकाश रीति से व्याह का नाम सुन 'कालनेमि, वशावतंस', कान पर हाथ धर राम राम! यह अधर्म, यह अनर्थ, यह अनहोनी बात यह परम्परा-मर्यादा के प्रतिकूल कार्य किससे हो सकता है। कह कर कदापि स्वीकार न करेगे, निदान अब मैं इन बे मांग-पछ के पशुओं के गुणगान को छोड़ और इनको मूर्खता की कहानी से मुंह माड, दर फिर उसी कथनीय विषय पर, जिनका शेष एक अंश अभी नहीं वर्णन किया गया है, वर्णन करती हूँ।

अब उन स्त्रियों की दशा निवेदन करती हूँ जा अनन्या पतिव्रता, स्वकीया कहाता हैं जिन्हें कमलिनी का भाँति सूर्य और कुमुदिनी की भाँति चन्द्र, एवम् चातको को भाँति स्वाति-विन्दु की रीति केवल एक ही अपना प्रियतम प्राणाधार ही रहे, दूसरा चाहे विष्णु बन क्यों न आकर अपनी प्रीति प्राश में लाया चाहे, कदापि नहीं आने की, और सिवा उस एक के कदापि और के नाम भी जिह्वा पर नहा लाने की। वेदो प्रकार की है, अर्थात एक तो वे जो पलि का मुंह देख चाहे "वाही चित्त चारहि चितोताच दे चुकी" की भाँति उन पर अनुरक्त भइ, वाइस भवसागर मे से प्रारब्ध अनुसार सीपी का मुस्ता पाकर उसो पर सतोष कर अपना जीवितेश और जीवनाधार मान बैठो, उनका आजन्म पर्यन्त का वियोग होने से जिनका जीवन सर्वथा असहा और असम्भव है, ऐसी दशा में उनका अपने प्रियतम के गले में हाथ डाले प्राण के साथ प्राण छोड़ देना, या उनके मुर्दा और जीव रहित शरीर के संग अपने सजीव शरीर को साफ जला देना, या उनसे शून्य असार ससार को अपने से भी शूभ्य और रहित कर देना, अथवा सब ही दु.ख जिनके सयोग से 'सुख थे, उमो संयोग मे इस कथन मात्र दुःख को सुख का मूल मान, मन भावन की विरह-वस्था व्याप्त होने न पावे वा उस यमपरी के मार्ग मे उस की सेवा में बाधा न हो, अनुमान सती हो जाना, उनका मानों फूलों की सेज पर ऐसा सोना था कि जिसमें फिर न आँखें खुलें, यही उस दुख को हरनेवाली और सदैव के सख को करने वाला उपान्य था। दसरी वे अज्ञात मुग्धा बाल विधाये कि जी यह भी नहीं जानती कि विधवा होने से कौन सी हानि वा लाभ है; और किश्च रीति क्या होने से क्या होता है, ना किसको विधवा कहते हैं। ऐसी दशा में कि पति का अर्थ भी न समझे और उस नाम मात्र के' पनि के भी मरने पर अदि पुनर्विवाह हो, तो उन्हें भी यही उपचार विचार के