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प्रेमघन सर्वस्व

पुण्य पातिव्रत धर्म को निभाती, प्राप्त दुखों को पूर्व जन्मकृत कर्म-संस्कार मान इस जन्म में पति सेवा से उसे संवारती, और कंदाचित् मन पर मैला नहीं आने देती। महा दुख का विषय है, कि यदि अब वह खराब वा खोटा बड़ा वा छोटा उत्तम वा अधम आधार को जो हमें अन्धे की लकड़ी के तुल्य हो रहा था, जब न रहा, तो कैसे हम सब की सब ऐसी दीन दशा में संसार के सन्मार्ग रूपी सन्मार्ग पर ठीक चल सकती है। एक मात्र अवलम्ब से अवलम्बित, यथा भग्न नौका से बड़ा यात्री किसी घटवा काष्ट के आधार पर बड़ी बड़ी लहर में उलटता, पुलटता, किसी रीति जा रहा हो, और उस आधार से भी निराधार होकर यदि महासागर सहरा इस भव सागर से पार हुआ चाहे, कैसे सम्भव है सो भी प्रायः उस अज्ञान अवस्था में कि जब बह सर्वथा मुग्ध हो।

मेरी समझ में तो उसके जीवन में शादी केवल मृग तृष्णा है। कैसे अन्याय का विषय है जर कि ऐसी अवस्था में ब्याह किया जाता है जब शीतला देवी के ग्रास तुल्य अथवा नाना प्रकार की जो बालव्याधियाँ होती हैं, उनके कराल गाल में जाने के योग्य कोमल बालक दुलारे दुलहे और गुड़ियों की तरह दुलहिनें जो विचारियों ब्याह की भाँवरी भरने को भी केवल एक खेल जानती, व्याह दी गई हैं! इसी पर एक कवि ने कहा हैः—

"सखितैं हूँ हुती निसि देखत ही जिद पै पै भई ही निछावरियाँ।
उन पानि गहो हुतो मेरो जबै सबै गाय उठी वूजडामरियाँ।
अखियाँ भरि आवतीं मेरी अजौं सुमिरे उनकी पग पायरियाँ।
कहियै तो हमारे वे कौन लगैं जिनके संग खेली हौं भावरियाँ"॥

थोड़ी सी भी सर्दी गरमी पहुंचने से वा पेट या सिर दुखने से, जैसे कि क्षूद्र ब्याधियों में लड़के मरा करते है, मर गये तो बस! फिर क्या था, अनर्थ हो गया, हाहाकार मच गया रोहा रोहट की आवाजें आने लगी, लोग मातम पुर्मी को शोकसूचक वेष धर धर कर बर में उनके शोक प्रकाशनार्थ आने जाने लगे, स्यापे की तैयारियाँ होने लगी; बाहर की औरतें आकर मित्य रो रो कर उस भोली भाली कन्या के सामने उपद्रव मचाने लगी। और पद्यपि वह यह नहीं जानती कि मेरा जो कुछ इस दुनियाँ मैं था सर्वस्व ईश्वर ने हर लिया, और इस संसार का एक मात्र मेरा अधार मुझमें बिछड़े गया, पर तो भी उसे कुल परम्परा, और लज्जा, विमय की मानो शिक्षा सी