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प्रेमघन सर्वस्व

पर महारज ने गजादिक बहुमूल्य पदार्थों का दान किया, तदुपरान्त श्री गंगा जल तुलसी आदिक ब्राहाणों से प्रस्तुत करने को इंगित किया, जिसके पाने पर उसे पानकर तुरन्त ही स्वर्ग को प्रस्थित हुए। हा!—

"धिगिमां देह भृतामसारताम्।"

क्या अन्त समय में सर्व सामान्य जन इस प्रकार सावधानी से अपज महायात्रा का प्रबन्ध कर सकते वा ऐसी सद्गति पाते हैं? शोक! अब इसके आगे की कथा कहने का किसे साहस हो सकता है। सारांश, महा कोलाहल और यातनाद के चीत्कार से अयोध्या नगरी भर उठी। अयोध्या के समस्त बाज़ार और दूकानें बन्द हो गई और उस सायंकाल को अयोध्या मात्र में न तो कहीं दीपक जला और न किसी ने भोजन किया। महारानी का शोक आज तक समस्त अध्योचावासियों के चित्तों पर छाया हुआ है और कदाचित् बहुत दिनों तक रहे, वरञ्च बहुतों को तो आजन्म रहेगा। वास्तव में अब फिर अयोध्या ऐसा अधिपति काहे को पायेगी। उस दिन फैज़ाबाद की सरकारी सब अदालतें भी वन्द रहीं।

महाराज का जन्म सन् १८५५ ई॰ के जुलाई मास में हुआ था। शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल भूषण श्री महाराज मानसिंह के दौहित्र और सदैव उन्हीं के साथ बचपन ही में रहा करते थे। महाराज मानसिंह के देहान्त के पीछे उनकी महाराणी शोभा कुँवरि ने एक दूसरा दत्तक अपने पति के भतीजे लाल त्रिलोकी नाथ सिंह को लिया, जिनसे इस राज्य के पाने निमित्त महाराज से बहुत दिनों तक अदालत हई। अन्त को 'प्रीवी कौन्सिल'ने प्रशंसित महाराज बहादुर को राज्य का उत्राधिकारी बनाया? जिस कारण से रियासत बहुत ऋणग्रस्त हो गई। सहाराज के पिता नृसिंहनारायण सिंह ने इस लड़ाई में महाराज की बड़ी सहायता की थी।

महाराज सूबा अवध के समस्त तअल्लुकदारों के अंजुमन के यावजीवन सभापति थे और जिस दिन से गद्दी पर बैठे उपाधियों की परम्परा से सदा विभूषित हुआ किये। महाराज को अयोध्या नरेश की पदवी सन् १८८७ ई॰ में श्री महाराणी विक्टोरिया की जुबिली के अवसर पर मिली थी। इसके उपरान्त वे अनेक बार छोटे लाट और बड़े लाट की लेजिस्लेटिय कौन्सिलों के मेम्बर हुए। १८९५ मैं के. सी. आई. ई. का पदक पाया। श्रीमान् अन्य अनेक गुणों के आकर होते हुए निज मातृभाषा के बड़े ही प्रेमी थे।