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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

न कह धीरे से एक रुपया निकाल कर हाथ जोड़ा कि यदि यह स्वीकार हो तो अाज्ञा पालन करूँ।

भयं॰ भट्ट॰—अरे तुम को लज्जा नहीं दिया भी तो एक, जो इतने चौबो के मिर्च का भी मोल नहीं, भाँग तो पीछे रही। उसे तो एक चौवे ने उठा लिया फिर सेट जी ने शरमा कर दो रुपया और निकाले, फि कुछ सुन कर दो रुपया और उसे भी उसी ने उठाया अब तो पाँच पाँच रुपया मानी होटल के बिल का दाम सा सबको चुकाना पड़ा. नवाब साहेब ने दस दिये। सत्र चौबे भट्टाचार्य की पीठ टोक चले और भट्टाचार्य महाशय सेट जी पर बहत बिगड़े कि इसने बड़ा अनुचित काम किया हमारी नाक इसने काट ली। मित्रता का नाता आज इसने तोड़ दिया। यह तो कुछ न हुआ।

१९६० आ॰ का॰

 

[असमाप्त]