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प्रेमघन सर्वस्व


भयं॰ भट्टा॰—हाँ, किन्तु यह सब नितान्त रंगशाला के राजाओं की भाँति केवल चमत्कृत वेषमात्र से शोभा नहीं पाते, वरञ्च पृथक पृथक ससैन्य होने से ही मुशोभित होते! अकेले अकेले मानो बिगारी में पकड़े कदापि नहीं शोभित होते। हम नहीं समझते कि ऐसा क्यों हुअ। क्या इस आशंका से कि इनकी सेना और सजावट के आगे लाटसाहिब की शोभा फीकी पड़ जाती?

मैं—देखिये, यह हमारे काशिराज भी स्वाधीन-नृप-मण्डली में विराजित हो साथ हैं।

भयं॰ भट्टा॰—जी हाँ।

मैं—अब इधर देखिये, भिन्न भिन्न देशों के नरेशों के वेश-विन्यास वैचिव्य को।

शास्त्री—यह कौन है?

मैं—देखिये यह केंगटङ्ग के सौब्बा हैं।

राजा—इधर देखिये, लाट लोगों के ठाट कैसे नियम और योग्यतानुसार हैं।

शास्त्री—हाँ वह तो हुअ ही चाहे।

मैं—देखिये यह, ससैन्य हमारे सेनापति लार्ड किचनर हैं।

भयं॰ भट्टा॰—हाँ, बीर पुरुष हैं न, इसीसे अश्वारूढ़ हैं।

शास्त्री—यह सब भी भिन्न भिन्न देशों के लाट ही होंगे?

राजा—जी हाँ।

मैं—देखिये यह क़िलात के खाँ साहिब हैं।

भयं॰ भट्टा॰—हाँ, इसके जंगलीपन में भी कुछ बीर बनक बढ़िया है।

शास्त्री—हाँ, उधर तो भारत के पूर्व प्रान्त का विलक्षण आडम्बर और इधर पश्चिम अञ्चल की उजड्डता दोनों पर विशेष लक्ष्य की आवश्यकता है। रही भारत की कथा सो तो अकथ है। किन्तु क्या कहें कुछ समझ में नहीं आता कि यह कैसी कुछ अटपटी परिपाटी है कि इस यात्रा समारोह में कहीं से कुछ भी उत्साह प्रतीत नहीं होता, वरञ्च एक प्रकार की उदासीनता सी छाई है।

भयं भट्टा॰—हाँ, सचमुच स्थापा सा लखाई पड़ता है, क्योंकि न तो कहीं बाजा है और न किसी प्रकार की हर्ष की सूचना। फिर शोभा हो कैसे?