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दिल्ली दरबार में मित्र के यार

हिय गढ़ समर, ड्योढ़ी लसत निसान।" के अनुसार उसमें आश्चर्य ही का क्या विषय था १ परन्तु शीघ्र ही विजया देवी ने सावधान कर दिया। जो हो, किन्तु हाँ उसके दन्त शुण्ड तुल्य होने में अवश्य ही आश्चर्यमा थे।

राजा॰—हाँ बहुत ही बड़े थे।

भयं॰ भट्टा—महाराजा—देखिये देखिये—बचाइये! बचाइये!

राजा॰—क्या है?

भयं॰ भट्टा॰—रक्षा कीजिये! रक्षा कीजिये? नहीं तो यह दुम दुम दुम्मा अथवा गुम्मा महाजित अपने दोनों हाथों को बढ़ाकर मुझे उठा लिया चाहती और कदाचित् अपनी बिचली सींग से विद्धकर देना चाहती है क्या?

शास्त्री जी—भला, इतनी भङ्ग पीकर प्रमत्त होने से क्या लाभ होता है?

राजा—जो हो, मित्र! परन्तु न केवल सवारी, वरञ्च सारी दिल्ली की सजावट दो जैसी आप को वहाँ से दीखेगी अवर्णनीय है।

भयं॰ भट्टा॰—ऐसा! तो चिन्ता नहीं, ले जाने दो। परन्तु यह तो कहिये कि जीते तो बचेंगे, कि नहीं?

मैंने कहा कि-अब इधर देखिये सवारी सामने पहुँच गई।

भयं॰ भट्टा॰—हाँ, किन्तु भाई! मुले तो इस लघुशंका ने विह्वल कर दिया है। परन्तु समझा! कदाचित् यह इस चतुरङ्गिनी सेना को देख कर डर के मारे दोनों हाथ उठाकर आर्तनाद कर कहती है, कि "प्रभो! मैं निरापराध हूँ, मृत यवन भूपतियों की रीति जिन-जाति धर्मावलम्बियों की विध्वन्सन प्रणाली का अनुकरण कर इन तोपों के गोले कहीं मुझ पर न छड़वा दीजिये, कि मैं यहाँ के अनेक प्राचीन मन्दिर के समान मिट्टी में मिल जाऊँ। अच्छी बात है। त्राहि! त्राहि! कर बिलबिलाने दो। जब वह स्वयम् डरी है, तो मेरा बाल कब बाँका कर सकती है।

राजा—देखिये, इनका यह सेना-संगठन और उसका प्रबन्ध। जो यद्यपि संख्या में अति न्यून है, परन्तु अति प्रशंसनीय।

मैंने कहा कि हाँ, प्रबन्ध चातुरी और कार्य-तत्परता तो इनसे कोई सीखले, और इसके विरुद्ध सब कुछ हम लोगों से।

शास्त्री—जी हाँ, जिस जाति के ऊपर ईश्वर सानुकूल रहता, अथवा जब उसकी दशा ठोक रहती, सब कुछ ठीक ही रहता और उसके प्रतिकल होने पर सबी कुछ प्रतिकूल हो जाता है।