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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार

को देख कुछ उनका हाल बतलाते, तो हमारे मित्र समग्र भारत और उसके भिन्न भिन्न प्रान्त से आगत निवासियों का निदान एक एक स्थान उनकी। सजावट और वनावट एवम् नाते जाते, मिले, बो बैठे मनुष्यों की दशा और उनके वेष-विन्यास वा लिबास पोशाक सवारी और तैयारी आदि की समालोचना कर चले कि जिसकी कुछ भी चर्चा चलानी मानो इस कथा को। अकथ कहानी बनानी है।

अस्तु, अनेक आते जातों से अपने को छुड़ाते, बैठों की आखें बचाते, विशेष व्यक्तियों के मिल जाने और उनके आग्रह पर कुछ अड़ भी जाते, पान इलायची खाते, बों साढ़ेसाती शनैश्चर की परिक्रमा लगाते हम सब लोग किला के मैदान में आ निकलें। यद्यपि कदम कदम पर लोग उन्हें अपने पास बुलाते थे, क्योंकि वह बड़े व्यापक और प्रख्यात थे। प्रायः भारतवर्ष के मुख्य नगरों के प्रधान प्रधान जनों से आपका मिलाप और संलाप है आनन्द के आप साक्षात मूर्ति हैं इसी से बहुतेरे इन्हें अपने ही निकट ठहराना चाहते, परन्तु वह कब रुकने वाले थे। निदान हमारे भट्टाचार्य महाशय ने एक प्रशस्त भवन को दिखला कर कहा, कि—देखो यहाँ से बढ़ कर और कोई उपयुक्त स्थान अपने लोगों के ठहरने योग्य नहीं है। यह एक अति सुप्रतिष्ठित और परम सज्जन सुहृद का घर है, कदाचित् अपने और कई मित्र भी यहीं मिल जायगे और निज घर से भी अधिक सुख स्वच्छन्दता यहाँ उपलब्ध होगी, अतः चलो यहीं चल कर बैठे। वह कहते ही थे, कि आगे से एक भद्र पुरुष ने आकर अति विनम्र भाव से आपके चरण स्पर्श कर प्रणाम किया और हाथ जोड़ निवेदन कर चले, कि "चलिये मेरे घर को शोभादे सनाथ कीजिये।" हमारे मित्र ने मुझसे उनका परिचय करा कर कहा, कि "आप को ले चलिये।" उन्होंने मुझे भी उनके साथ सादर घर चलने का अनुरोध किया और हम लोग चले।

देखते हैं कि उस बड़े मकान में सैकड़ों मनुष्य भरे हैं। नीचे तो सरसों का भी सन्निवेश असम्भव था, दूसरे खंड में भी यद्यपि सब प्रतिष्ठित समूह सुशोभित, तो भी संकेत से समावेश संभव है। अब बगल के जीने से जो हम लोग तीसरे मंजिल पर पहुँचे तो देखा, कि एक धुले स्वच्छ कमरे में नवीन आसन बिछी चौकी पर हम लोगों के मंडली-मण्डन और पूज्य पथ-प्रदर्शक महानुभाव परिडत प्रवर श्री विज्ञानेश्वर शास्त्री जी और सामने उनके श्री महाराज करुणानिधान सिंह जू देव महोदय विराजमान हैं। केवल उनके

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