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दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार


सुन सुन कर मैं मनी मन में हँसता और चुप रहता, कि कहीं बोलने से इनका बाग-धारा-प्रवाह बन्द न हो जाय, क्योंकि ऐसी ऐसी विचित्र बातें सुनी कि ओ कभी काहे को सुनने में आई, ना आएँगी। काहे को भारत की प्राचीन राजधानी निवासी राजसदनस्थ बाबा आदम के भाई कहीं मिले थे, कि-जहाँ से उनसे जो प्रश्न कीजिये और वहीं से अनोखा उत्तर राइये। क्योंकि आपके दादा वहाँ मोती मसजिद के मुल्लाओं में से थे और उसी क्रम से आप भी वहीं के लगे लिपटों में से। सारांश जबन रहा गया तब मैने कहा कि जनाबियाली यह आप क्या फर्मा रहे हैं? हर मुल्क की चाल चलन लिवास पोशाक और रस्मो-रिवाज जुदागाना होता है। ऐयाशी और फजलखी तो कोई अच्छी बात नहीं है। जिसना ही कम खर्च हो 'मुल्क के लिये अच्छा है। और जो हज्रत यह इर्शाद फर्माते हैं, कि अंगरेजों में आदमीयत और तहज़ीब नहीं है, इस्का तो एक ज़माना कायल है। इन्तिजाम सलतनत कभी ऐसा काहे को था, रिाया के जानोमाल व इज्ज़त की हिफ़ाज़त ऐसी कय थी! ऐसा अम्नी चैन आगे कहाँ किसे नसीब था? और अगले बादशाह लोग तो रिश्राया का लूट लूट कर मुक्त का रुपया खज़ाने में भरे रहते थे बेमौके ऐसे ही बेढंगे तौर पर बर्बाद किया करते थे, मला उन ज़ालिम बादशाहानि-इसलामियाँ से हमारी इस आदिल गवर्नमेंट को क्या वास्ता है? बाकी आप तो इनकी मज़म्मत करना ही चाहें, क्योंकि आपको आगे का सा मज़ा अब कहाँ है? अब आपके फ़तवे कब चल सकते हैं। बस, इतना सुनते ही वो तो जामें से बाहर हो गये, एक एक एतराज पर दस दस दलीलें दे देकर मुझे लाजवाब कर चले। मैं फिर में खोलना उचित न समझा, क्योंकि उनमें हद से ज़ियादा जोश पैदा हो चुका था; इसीलिये मैं सिर हिला हिला कर बाजा इर्शाद कह कह कर उन्हें टएढा कर चला। अंत को उन्होंने यह कहा, कि खबर अब आइन्दा से ऐसे नाशाइस्ता कल्मे भूल कर भी जबान पर न लाना, तुम लोग कल के लौंडे हो, जब से पैदा हुये इन्हीं अंगरेज़ों का ज़माना और इन्हीं की शानो शौकत देखी, तुम अागे का हाल क्या जान सकते हो? जो किताबें तवारीख़ वगैरह की भी पढ़ते हो, यो इन्हीं लोगों की बनाई हुई होंगी, जिसमें अगलों की तो मज़म्मत और मनमानी अपनी उजम्मत और तारीफ़ लिखी हुई है। फिर तुम सिवा इसके और क्या समझ सकते हो। नहीं तो क्या अगले बादशाहों की बात थी और क्या इनकी यस्तग़ाफिरल्ला "भला"