एक दूसरे दिल्ली निवासी सम्बन्धी[१] ने, जिनका सम्बन्ध बतलाने में संकोच होता, और कदाचित् पाठक उसे ठिठोली समझे, मेरे पत्र के उत्तर में लिखा कि "प्लेग यहाँ नाम को भी नहीं, जाड़ा भी शहर में वैसा नहीं है कि जो हद से ज्यादा कहा जा सके, शायद उतना ही कि जितना आज कल इलाहाबाद में रहता है। आप बेखरके चले आइये और ज़रूरही आइये। क्योंकि जिसने इस मौके पर दिल्लीन देखी वह बहुत ही चूका। आप हर्गिजहर्गिजन किये, ज़रूर तशरीफ लाईये और ग़रीबखाने को जलवा बस्त्रशिये, नमक रोटी पर कनाश्रत कर बन्दों की खिदमत कबूल कीजिये, ईश्वर ने चाहा तो हसुल्मकदूर किसी किस्म की तकलीफ न होने पायेगी" इस पत्र को पढ़ बहुत कुछ ढाढ़स हुई, और मनमें सोचने लगा कि अधिकांश 'आशंकायें तो निर्मूल हो चुकी अब चलने में क्या बाधा है, कि एक दूसरा लम्बा चौड़ा पत्र भी आ पहुँचा-वह था हमारे अन्तरङ्ग मित्र-मंडली मण्डन लखनऊ निवासी परम प्रियमित्र माननीय जनाव नवाब फैयाजुहोला बहादुर का, जिन्हें प्रायः लोग नवाब बेकराकहोला भी कहा करते हैं और जिसमें लिखा था कि अरे मियाँ क्या वहाँ कोठरी में बन्द मच्छरों की सी ज़िन्दगी बिता रहे हो। बल्लाः चूक जाओगे तो बहुत ही पछता. ओगे! ऐसा समाँ फिर कभी काहे को दिखलाई देने का है! बखुदा लायजाल आज दिल्ली की सजधज क्या किसी माशूके! महजबीन से कम है। वनहदि हुकूमत शाहानिसलफ़ भी क्या कभी इस पर यह रौनक थोड़ी रही होगी? आज तो यह तख्तये खुल्द बन गई है। जिधर जाइये बस वहीं के हो रहिये (जिधर देखिये, कि देखते ही देखते दिल गया, और बस गया! ऐ है! बस यही कहते बनता है कि चश्मि बदर! चश्मि बद्दूर! फिर क्या सिर्फ इतना ही! बस सिर्फ इतनाही इशारा काफी समझो किइस वक्त यहाँ न सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि कुल “जहान का जौहर जल्वागर है। जो कुछ अहलेदिलों को काबिल दीद व दरकार है सबी कुछ तो तैयार है। बस अब चले ही आओ, तुम्हें मेरी जान की कसम है। जब कि अपने सबी वेगाने और दोस्त आशनाओं का यह जमघट जमा है, तो अकेले तुम्हीं क्यों न हो, लिहाजा जिस कदर जल्द मुमकिन हो, लिल्ला! चले आओं
- ↑ प्रेमघन जी के भाई के साले रायबहादुर पंडित रामशरण मिश्र।