पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/१६४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
 

दिल्ली दरबार में मित्र मण्डली के यार


दिल्ली दरबार के पूर्व उसकी चर्चा की चरपराहट किस के चित को इन नहीं करतो थी और किसका मन वहाँ को शोभा देखने को न ललचता? कौन था। जिसे निसी प्रकार पहुँचने की शक्ति थी और वह वहाँ के के लिये उत्कण्ठित में था? यदि कोई था, तो मैं, जिसे लोगों के कितने हूँ कहने और बारम्बार श्रीमह करने पर भी यह आशा न होती कि उस अवसर पर मैं भी वहाँ उपस्थित हो उस आनन्द का भागी हूँगा। समझता कि सरकार से न्योली वा हान होगा तो पितृचर का, और थे। मिज नित्य, नैमित्तिक कर्म में व्याघात के भय से जाने वाले नहीं। रही स्वाभाविक सैर की अभिलाषा अपनी, सो पहिले तो अपना चलना ही कुछ सहज नहीं बरश्च यात्रा के प्रोग्राम का निर्माण ही कठिन था इसलिये कि 'स्वभावतः मनसूबेही विचित्र, लालसा ही अलौकिक, और इच्छा एवम् उत्कण्ठाएँ कुछ ऐसी जैसी कुछ फिर उसके लिए आवश्यक सामग्री और साहित्य का सञ्चय भी कब सुलभ! तब भला क्यों चित्त में चलने की चाह होने लगी? विशेषतः जाड़े के नाम से भी जाड़ा लगाता, तत्रापि उन दिनों कि जब बरामदे के परदे गिरा कर बन्द गर्म कमरों में, ऊघणपरिच्छद के सहारे समय कटता था, और फिर ज्यों ज्यो दिन निकट प्राता बदली-बूंदी और ठण्डी हवा के सञ्चार से अपना घर ही शिमला सपाट का समा दिखलाता और विन्ध्याचल ही हिमालय बनो चाहता था। जब कभी दिल्ली के इस होनहार उत्सव की अपूर्व धूमधाम को अनुमान कर मन में उमङ्ग हो भी उठती और वहाँ के होते समारम्भ के

सजानने के लिये कोई समाचार पत्र खोल कर पढ़ता, तो उनके दिल्ली पहुँचे पत्र प्रेरकों के, जिनमें अधिकांश बंगाली ही होते, 'कि जो प्रायः अरावने और भयङ्कर लेख लिखने में अपना प्रतिबन्दी नहीं रखते, लेख पढ बस एक बारही हताश हो जाना पड़ता'। कौवे लिखता, कि "बस जाड़े की बात न पूछिये, वह कुछ अनुभव ही से सम्बन्ध रखता है, अंति उस्कट! अति असहा! अति दुर्निवार्य!" कोई अपनी सारी कविता शक्ति जाड़े ही के वर्णन 'मैं व्यय कर डालते और एक अच्छी खासी कथा, पुराण की पोथी दी लिख

१६२