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बनारस का बुढ़वा मंगल

केवल देखने ही का विषय है। वाह इनका नाटकीय बङ्गला गान यद्यपि बङ्ग भाषा से अज्ञान अनेक जनों को नहीं समझ पड़ता होगा, किन्तु हाव भाव कटाक्ष की काट से उन्हें कौन बचायेगा? देखिये तो केवल साड़ी पहने ये इस समय नाच रही है, परन्तु दर्शकों की आँखों से पूछिये कि वे अपनी नाच भूल कर एक टक लगाये मानों धन्य धन्य कहा चाहती हैं। वस्तुतः उनके दलकते नितम्ब को चुम्बन करने वाली खुली काली कुन्तलावलि तो व्यालिनी सी रसिकों के चित्त को डँस रही है? यों ही इन कुरङ्ग लोचनों की फेर फार काम की कटार का काम कर कितनहूँ का काम तमाम किया चाहती है, वाह! इन गालों की लीला तो लाल की लालित्य को भी लज्जित कर रही है और इन मधुर अधरों से निस्सृत स्वर स्वाभाविक ही सुधास्त्रावसा अवणानन्ददाई है, फिर बङ्ग-भाषा की माधुर्य सरस स्वाद को सौ गुना बढ़ा रही है।

"यमुना पुलीने बोशी काँदे राधा बिनादिनी" वलि हार! वलिहार! कहता मन जो उस रस में फंसा तो बस, फिर कुछ काल तक इसका कुछ परिज्ञान ही न रहा, कि यहाँ क्या हो रहा है, परन्तु आश्चर्य का विषय तो यह है कि—

इस सुवृहत जन संघट्ट और भारी महा सभा में कहीं किसी के मुख से प्रसन्नता सूचक वा प्रशंसामय कोई शब्द नहीं निकलता महाराज लोगों के अदब से मानों सब की जिलाएँ दाँतों के तले दब रही हैं, जिस कष्ट से यदि कभी किसी का कुछ मस्तक भी हिलता तो कदाचित् भय के मार ही के कारण से अनुमानित होता, फिर भला बतलाइये तो कि ऐसे स्थल पर हम सरीखों की कैसे विधि मिल सकती है, और स्वाभाविक सुख सामग्री का परित्याग हो सकता है,सब सावधानी सपर सकती है, परन्तु श्रानन्द उन्मत्त होकर बिना वाह! वाह! किये तो नहीं रहा जा सकता। एवम् सहस्रों सभ्यों के सम्मुख नियम विरुद्ध कार्य भी ठीक नहीं।

और फिर अब किसी दूसरे तायके के तमाशे को देख इस सभा को दिल से भुलाना भी अनुचित ही है। रात भी अब थोड़ी ही है, दो दिन की उनीदी आँखै अब अपना कहना भी नहीं करतीं, अतः खिसकनाही ठीक है। यह बिचार किसी किसी भाँति आशा ले और अभिवादन कर ज्योंही चले, कि एक अनजाने मनुष्य ने आकर हाथ पकड़ एक दूसरे ही ओर घसीट ले चला। मैं बहुत ही चौकन्ना हुआ और बारम्बार उससे पूछने लगा, कि क्यों! भाई क्या कहाँ लिये जाते हो? जल्दी आओ! अजी तुम हो कौन, बतलाओं भी