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यह भी मानो आजकल की अंग्रेजी सभ्यता का सार है, परन्तु हाँ ब्रह्मसमाज से कुछ सहानुभूति है और कहते हैं कि जो जितना अपने पुराने धर्म से आगे बढ़ता है उतना ही हम उसको धन्य समझते हैं।"

आपका चरित्र एक विचित्र ही चरित्र है, वास्तव में भारतीयता का इनमें नाम ही नहीं है। भारत को वे परम असभ्य और जंगली देश समम कर उसके निवासियों को परम दलित और पराजित जाति की सम्पत्ति मानते हैं। लेखक इनके आचरण पर क्षुब्ध होता है और अपने देश में भारत के प्रति इन भावनाओं के उदय पर क्षुब्ध होकर स्थान स्थान पर भारतीयों को अपनी प्राचीन गरिमा और आदर्श की ओर आकृष्ट कर अपने देश और जाति के उन्नति का प्रार्थी होता है। प्रेमधन जी ने अपने काव्य में चाहे वह गद्य हो चाहे पद्य इस भावना को जितनी प्रधानता दी है उतना भारतेन्दु युग के किसी अन्य लेखक के अन्तर्गत हमें इतने स्पष्ट और प्रभावशाली रूप में नहीं दिखाई पड़ता है। कवि प्रेमघन भारत की दुर्दशा पर बोल उठता है :—

मरे वियुध नर नाह सफल चातुर गुन मंडित
विगरो जन समुदाय बिना पथ-दर्शक पंडित
सत्य धर्म के नसत गयो बल बिक्रम साहस
विद्या बुद्धि बिवेक विचार रह्यो जस।"

प्रेमघन जी ने अतीत वर्णन के द्वारा देश में उत्साहवर्धन का कार्य प्रारम्भ किया। इसकी आवश्यकता कवि को इसलिए प्रतीत हुई कि कवि अतीत के वर्णन द्वारा यदि एक ओर भारत की अधोगति का चित्रअंकित करता, तो दूसरी ओर जन साधारण के अन्तर्गत अतीत के भावपूर्ण आख्यानों की स्मृति का जागरण करा कर जनता में उत्साहवर्धन का कार्य करता था।

प्रेमघन जी में भारतीयता कूट कूट कर भरी थी। कवि भारत का, भारतीयता का और भारत-हितैषियों का परम पोषक था। वह भारत उन उन्नायकों और देशभक्तों में था जिसे अपनी मर्यादा का सदा ध्यान था।

दादा भाई नौरोजी के ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में काला कहे जाने पर कवि हृदय क्षुब्ध हो बोल उठा:—