पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/९५

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इन्द्र धनुष की झालर चहूँ लगाय।
चमकि चंचला सूचत समय सुहाय॥
यों कहि पीछे घूम्यों नेक निहारि।
लखि अक्रूर कुपित है दियो निकारि।
परवस परि अक्रूर तज्यो वह ठाम।
आयो निज रथ पर कछु हित विश्राम॥
लग्यो सोचिबो गन्धर्वन की बात।
बहु समुझयो पै समुझयो नहिं समुझात॥
इतने ही मैं महा मधुर धुनि कान।
परी आनि मुरली की मोहत प्रान॥
जय जय शब्द सोर सुनि परयो महान्।
स्वर्ग सुमन बरषत लखि देव बिमान॥
अति आतुर है रथ हांक्यों तिहि ओर।
निरख्यो रच्छत द्वार सिंह द्वै घोर॥
लखि स्यन्दन वे उतै उठे गुर्राय।
डरपि भजे लै निज वै प्रान पराय॥
छन हीं मैं रथ बढ़ि पहुँच्यो बहु दूर।
थक्यो निवारत बल करि भल अक्रूर॥
रुक्यो जाय कोउ विधि वह बन कै छोर।
लग्यो सुनन अक्रूर मनोहर सोर॥
बजत सरंगी बहु इसराज सितार।
झांझ मजीरे मसक समय अनुसार॥
जल तरंग डफ ढोलक चंग मृदंग।
मुरज नफीरी सुर सिंगार मुंह चंग॥
बीन सरोद कबहुँ कोमल सुर मन्द।
कबहुँ दुन्दुभी नाद देत आनन्द॥
लाखन धुंघरू किकिनि कलरव संग।
सबहिं एक सुर मैं मिलि बजत सुढंग॥