पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/८७

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चह्यो जन्मतहि मारन जिहि गुन काल।
अरु जिहि भ्रमबस हने असंख्यन बाल॥
जा हित कंस ब्याहतहिं बन्दी कीन।
बिलपत बनि बसुदेव देवकी दीन।
कहँ जनम्यो वह अरु कित पहुँच्यो जाय।
बन्दी गृह सों तिहि को सक्यो चुराय॥
जनी देवकी कन्या जिहि जब कंस।
पटकि पछारन लाग्यो परम नृशंस॥
कर छुड़ाय वह पहुँची उड़ि आकास।
बनि देबी वह हँसि तिन कियो प्रकास॥
जिहि सुनि उद्वेजित है भोज भुआल।
हने बालकन जे जनमें तिहि काल।
सुनि अष्टम बसुदेव सून वृज मांहि।
अहै नन्द नन्दन बनि तिहि कल नाहिं।
यद्यपि तिहि मारन हित सुभट अनेक।
पठय हतास होयहू तजत न टेक।
व्यर्थहिं अपने बीरन रह्यो नसाय।
रुकत न पै तिन कहँ नित भेजत जाय।
जौ केशीहूं सक्यो ताहि नहिं मारि।
अथवा तासों कोऊ विधि भाज्यो हारि॥
तौ वह बधन चहत तिहि तितै बुलाय।
भेज्यो मुहिं जिहि ल्यावन हित फुसलाय॥
असमंजस अस यामैं मोहिं लखाय।
सकहुँ न कैसहुँ कछू ठीक ठहराय॥
परयो नृपति आदेस जबहिं तें कान।
तब ही सो है चिन्तित चित्त महान।
अहो कष्ट अति समझत नहिँ कहि जाय।
परबस सके कौन विधि धर्म बचाय।।