पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/८६

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पै जो तुम तित हते तिन्हहिं तौ कहौ कवन रस।
निरख्यो किन जंगल मैं भल नाच्यो मयूर जस॥६६॥
मैं अबहीं इक प्रबल वीर औरो पठयो तित।
कृष्ण और बलदेव दोऊ दुष्टन मारन हित॥६७॥
जौ न मारि वह सक्यो कोऊ कारन बस तिन कहँ।
सुहृद शिरोमणि अक्रूरहु कहि मैं भेज्यो तहँ॥६८॥
ल्यावहु इत लौं तिन दोउन कहँ कोऊ व्याजन।
नगर देखिबे अथवा धनु मख निरखन काजन॥६९॥
जब अक्रूर कोऊ बिधि सों तिन कहँ इत ल्यावहिं।
तब तुम सब रहि सावधान करि करि निज दांवहिं॥७०॥
अवसि मारियै तिनहिं कोऊ विधि भाजि न जावहिं।
जासों निष्कंटक ह्वै कै हम सब सुख पावहिं॥७१॥
बहु विधि प्रबोधि यों सबन कहँ, पुरस्कार दै दै नयो।
तब त्यागि गुप्त निज सभा गृह, भोजराज महलनि गयो॥७२॥

इति कंस अक्रूर परामर्श
प्रथम सर्ग
आषाढ़ शु॰ ११ सं॰ १९७२ बै॰


 

अथ द्वितीय सर्ग
बरवै छन्द


प्रातहि संध्या बन्दन कै अक्रूर।
स्यन्दन सब सुख सामग्री सों पूर॥
पर चढ़ि गवने वृन्दावन की ओर।
चिन्तत चरित चित्त मैं नन्द किशोर॥
मन मैं कहत सकत को करि अनुमान।
परे बुद्धि सों विधि को अहै विधान॥