पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/८५

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शत्रु सहायक जेते हैं तिन सबन संग हति।
राजकंटकन नासि होइहौं स्वस्थ जबै अति॥५२॥
विष्णु सहायक लहि सुरपति ज्यों भयो कृतारथ।
तुव सहाय हौं तथा इष्ट लहि सकौ यथारथ॥५३॥
सुनि अक्रूर कंस मुख सों वनित यह बानी।
बोल्यो है संकित संकुचित जोरि जुग पानी॥५४॥
अनुजीवी हित नृप अनुशासन को परि पालन।
परम धर्म है यामै संसय नाहिं मान धन॥५५॥
यद्यपि यह मन सुनत सहज अति लगत मनोहर।
त्यों नहिं याकी सिद्धि सुलभ लखि परत नृपति वर॥५६॥
सिर धरि नृप आदेस जात हौं वृज प्रदेश अब।
यथा शक्ति नहिं शेष राखिहौं मैं कछु करतब॥५७॥
है प्रताप सों आप के यही आश सुनिश्चय।
प्रभु सेवा मैं आनि अर्पिहौं मैं उन कहँ लय॥५८॥
यों कहि के अक्रूर विदा लै कंसराय सों।
गवनहुँ निज गृह ओर प्रनमि सूधे सुभाय सों॥५९॥
तब शल, कोशल, चाणूर मुष्टिक आमात्यन।
महा मल्ल जे सुभट सराहे शत्रु विनाशन॥६०॥
महा-वीर बहु अनुभव जे युत चतुर महावत।
तिन सब करि एकत्र कह्यो निज भोजराज मत॥६१॥
सुनतहि मुष्टिक अरु चाणूर खड़े है दोऊ।
कह्यो कंस सों कै क्रुद्धित है भट अस कोऊ॥६२॥
या जग में जे सन्मुख समर हमारे आवै।
राम कृष्ण बालन हित को बकवाद बढ़ावै॥६३॥
अवहिं जात हम तिनहिं मारि मूषक सम आवत।
उन्हें हतन हित आयोजन सब व्यर्थ बनावत॥६४॥
सुनि हर्षित है कंस कह्यो हँसि अहो बीरवर।
तम दोउन सून तौ निश्चय नाहिन यह दूष्कर॥८॥