पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६९

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वर्षागमन

वर्षागम मैं बड़ी २ आँधी जब आवै।
नमित द्रुमन साखन तब चढ़ि २ झोंका खावें॥५११॥
गिरे, परै, पै तनिक न कछु चित चिंता आने।
पके रसाल फलन लूट चखि आनद मानें॥५१२॥
रक्षक प्यादा रहत सदा यद्यपि हम सब ढंग।
पैंतिह सों छटि निकरि भजत हम सब करि सौ ढंग॥५१३॥
पता लगावत जब लगि वह आवत ऐसे थल।
तब लगि पहुंचत कोउ दूजे थल पर बालक दल॥५१४॥
जब कोऊ बिधि वह पहुँचै वा दूजे थल पर।
तब लगि घर पर डटि हम पूछ गयो वह किधर॥५१५॥

वर्षा बहार

जब वर्षा आरम्भ होय अति धूम धाम सों।
वर्षं सिगरी निसि जल करि आरम्भ शाम सों॥५१६॥
उठे भोर अन्दोर सोर दादुर सुनि हम सब।
बदली जग की दसा लखें आवे बाहर जब॥५१७॥
किए हहास बहत जल चारहुँ दिसि सों आवै।
गिरि खन्दक मैं भरि तिह को तब नदी सिधावै॥५१८॥
भरै लबालब जब खन्दक अतिशय मन मोहैं।
बँसवारी के थान बोरि नव छबि लहि सोहैं॥५१९॥
धानी सारी पर जनु पट्ठा सेत लगायो।
रव दादुर पायल धुनि जाके मध्य सुनायो॥५२०॥
श्याम घटा ओढ़नी मनहुँ ऊपर दरसाती।
ओढ़े बरसा बधू चंचला मिसि मुसकाती॥५२१॥
भांति २ जल जन्तु फिरत अरु तैरत भीतर।
भांति २ कृमि कीट पतंगे दौरत जल पर॥५२२॥