पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६६६

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चरखे की चमत्कारी


चला चल चरखा तू दिन रात।
चलता चरख बनाता निस दिन ज्यों ग्रीषम बरसात॥
मन मन मंत्र जपा कर मन में सुन न किसी की बात।
कात कात कर सूत मैनचिस्टर को कर दे मात॥
टेकुआ का सर साध धनुष रघुबर की लेकर तांत।
लंका से लंकाशायर का कर बिलम्ब बिन घात॥
शक्ति सुदर्शन चक्र की दिया हरि ने तुझे दिखात।
तेरे चलने की चरचा सुनि यूरप जी अकुलात॥
ज्यों ज्यों तू चलता त्यों त्यों आता स्वराज्य नियरात।
परतन्त्रता दीनता भागी जाती खाती लात॥
चलना तेरा बन्द हुआ जब से भारत में तात।
दुखी प्रजा तब से न यहां की अन्नपेट भर खात॥
जो कमात दै देत बिदेसिन बसन काज ललचात।
दै दै अन्न नैनसुख लेत सिटिन साटन बानात॥
चल तू जिससे खाय दुखी भर पेट दाल औ भात।
सस्ता सुद्ध स्वदेशी खद्दर पहिन छिपावें गात॥
हिन्दू मुसलिम जैन पारसी ईसाई सब जात।
सुखी होंय हिय भरे प्रेमघन सकल भारती भ्रात॥

(२)


ज्यों ज्यों चपल चरखा चलत।
बसन व्यापारी बिदेसी लखि बिलखि कर मलत।
कहत गुन २ देत गुन २ दीन गन ज्यों पलत॥