पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६१२

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दूसरी लय


हिंडोरे लाल लली झुकि झूलें॥टेक॥
मनमोहन वृषभान नन्दिनी कुञ्ज कलिन्दी कूलैं।
मनहुँ मेघ माला में दामिनि दमकन की छवि तूलैं।
हूल हिडोर पाय परसत तन लहत मदन की हूलें।
गाय मलार दोऊ प्रेमघन हरसि हरसि सुधि भूलैं।

राग देस ताल खिमटा


हहा अब झूलन दे रे।
कूलन कालिन्दी के कलित कदम्ब कुञ्ज के नेरे।
केकी कलरव करत नचत चातक चहुँ दिस चहंके रे।
कानन कुसुम समूह विकासन सौं कैसे सोहै रे।
जिन पर मधुर मञ्जु गुञ्जति अलि मदन मंत्र जनु टेरे।
सैल सृंग से स्याम सघन घन गाजत आवत घरे।
मनहुं मत्त मातंग मदन के करत आज फवि फेरे।
सुनि गावत सावन मलार की मेरो मन ललचे रे।
जुवा जुवति जन आज प्रेमघन झूलत प्रेम पगे रे।

दूसरा


तनक धर धीर दई के निहोरे।
मनहु अनोखे आली झूलति तूही आज आज हिंडोरे।
नाही नाही, कहि कहि हा! हा! खाती हाथिन जोरे।
बालकमानी सी लचाय कर लंक लेत चित चोरे।
भौंहै तानि करत सीवी सतराती नाक सिकोरे।
अंचल चंचल है उघारत जोबन उभरे से थोरे।
ताहि संभारि आदि डरपै जनि रहियै लाज बटोरे।
घन गरजनि सो व्याकुल ह्वै, लहि हूल हिडोर हिलोरे।
लगी प्रेमघन जाय पिय हिय भभरि भरे भुज गोरे।