पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६०४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—५८२—

दक्षिणी गुलेलखन्डी खिमटा


सिर ऊदी पगरिया न देओ, नजरिया न लागै कहूँ॥टेक॥
बद्रीनाथ यार दिलजानी मोरी अरज सुनि लेओ॥

जनि कीजै पिया अपमान—जुबन मदमाती लली॥टेक॥
हा हा खात न मानत प्यारी—सीखी अनोखी बान॥
बद्रीनाथ नैन सर मारत—तानत भौंह कमान॥

पूर्वी खेमटा


बद्रीनाथ यार दिलजानी आओ न मोरी नगरिया॥टेक॥
मोरी गली आवत नित गावत, बांधे सुरुख पगरिया॥
तोरी सुरतिया पर मोर जिय ललचे, ताको तिरछी नजरिया॥

बरसाने की बांकी गुजरिया, नैनों से नैना लगाये जाय॥टेक॥
चितवत अस जनु लाज भरे दृग अलि मृग मीन लजाये जाय॥
बद्रीनाथ मधुर बतियां कहि लै मन बिरह बढ़ाये जाय॥

कै गयो चितवत कछु टोना—लै गयो मन नन्द ढोटौना॥टेक॥
बद्रीनाथ बिलोकत बाके—भूलत खानपान अरु सोना—कै गयो॰।

देखि लुभानी सुरत तोरी जानी॥टेक॥
वह मुसुक्यानि मनोहर मुख की वह चितवन अलसानी॥
बद्रीनाथ हाथ सो मन दै, भल कर मल पछतानी॥

समझावत गईं हार, यार मोरा मानेना॥टेक॥
औरन के सँग रहत रसीलो हम सों कछु अनुरागै ना॥
बद्रीनाथ नवल ढोटो यह, प्रीत रीत कछु जानै ना॥

छिन पल कल नहिं पड़त उन्हें बिन, रह रह जिय घबरावे॥टेक॥
सूने भवन अकेली सेजिया, सपनहुँ नींद न आवै रे॥
बद्रीनाथ डालि कछु टोनौ—अब नहिं सुरत दिखावै रे॥