परिचय
वह भी एक समय था जब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में एक अपूर्व मधुर भावना लिए सन् १८८१ में, आठ नौ वर्ष की अवस्था में, मैं मिर्जापुर आया। मेरे पिता जी जो हिन्दी-कविता के बड़े प्रेमी थे, प्रायः रात को रामचरितमानस, रामचन्द्रिका या भारतेन्दु जी के नाटक बड़े चित्ताकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे। बहुत दिनों तक तो सत्य हरिश्चन्द्र नाटक के नायक हरिश्चन्द्र और कवि हरिश्चन्द्र में मेरी बालबुद्धि कोई भेद न कर पाती थी। हरिश्चन्द्र शब्द से दोनों की एक मिलीजुली अस्पष्ट भावना एक अद्भुत माधुर्य का संचार करती थी। मिर्जापुर आने पर धीरे धीरे यह स्पष्ट हुआ कि कवि हरिश्चन्द्र तो काशी के रहने वाले थे और कुछ वर्ष पहले वर्तमान थे। कुछ दिनों में किसी से सुना कि हरिश्चन्द्र के एक मित्र यहीं रहते हैं और हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि हैं। उनका शुभ नाम है उपाध्याय बदरी नारायण चौधरी।
भारतेन्दु-मंडल के किसी जीते-जागते अवशेष के प्रति मेरी कितनी उत्कंठा थी, इसका अब तक स्मरण है। मैं नगर से बाहर रहता था। अवस्था थी १२ या १३ वर्ष की। एक दिन बालकों की एक मंडली जोड़ी गई, जो चौधरी साहब के मकान से परिचित थे, वे अगुआ हुए। मील डेढ़ मील का सफर तै हुआ। पत्थर के एक बड़े मकान के सामने हम लोग जा खड़े हुए। नीचे का बारामदा खाली था। ऊपर का बरामदा सघन लताओं के जाल से आवृत था। बीच बीच में खंभे और खुली जगह दिखाई पड़ती थी। उसी ओर देखने के लिए मुझसे कहा गया। कोई दिखाई न पड़ा। सड़क पर कई चक्कर लगे। कुछ देर पीछे एक लड़के ने उँगली से ऊपर की ओर इशारा किया। लता-प्रतान के बीच एक मूर्ति खड़ी दिखाई पड़ी। दोनों कंधों पर बाल बिखरे हुए थे। एक हाथ खंभे पर था। देखते-ही-देखते वह मूर्ति दृष्टि से ओझल हो गई। बस, यही पहली झांकी थी।
ज्यों ज्यों मैं सयाना होता गया त्यों त्यों हिन्दी के पुराने साहित्य और नए साहित्य का भेद भी समझ पड़ने लगा और नए की ओर झुकाव बढ़ता गया। नवीन साहित्य का प्रथम परिचय नाटकों और उपन्यासों के रूप में था जो मुझे घर पर