पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५९५

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लगनिया लागी कैसे छुडाऊ॥टेक॥
कैसी करू कित जाऊँ अपनो मन अपने ही बस मैं नहि पाऊ॥
जो जग मे चहुँ दिसि दिखाय तेहि कैसे हाय भुलाऊँ॥
प्रेम रोग को यार छोड़ नहिं औरन हे जेहि लाऊँ॥
श्रीबदरीनारायन कैसे यह उलझन सुलझाऊँ॥

कभी इत ऐहौ प्रान पियारे॥
जमुना तीर कदम की छहिया, अहलादित उर लैहै
अब कब आय पियारे पीतम, बसी तान सुनैहै॥
बैन सुधा साने कानन में, आय कबै धौकहै॥
बदरीनाथ बिछोहि रोआयो, सो कब आय हँसैहै।

खिमटा


पापी नैना नहीं बस मेरे॥टेक॥
रूप अनूपम देखत ही ये, जाय बनत चट चेरे॥
पुनि इन चैन है न सपनेहूँ, नहि बिन छबि छिन हेरे॥
लोक लाज तजि यार गलिन मैं करत रहत नित फेरे॥
श्री बदरी नारायन जू फँसि प्रेम जाल मैं हेरे॥
जोगिनिया काहे बजावत बीन॥टेक॥
जुगल लोल लोचन लोहित लखि लाजत खंजन मीन॥
मानहु उभय गेद मनसिज के उभय पयोधर पीन॥
लक लचत छन छन छन छबि की लेत मनहुँ छबि छीन॥
बदरी नारायन बियोगिनी बिरच्यौ बेश नवीन॥

लावनी


छिपा के मुखड़ा जुल्फ सियह में गहन लगाओ न माह मे—
खाले जन खदा दिखाकर अवस डुबोवो न चाह में॥टेक॥
खराबो रुसवा हुए व लेकिन सदा तुमारा ध्यान रहा—
हमेश प्यारे-तुम्हारे फिराक में हैरान रहा।