कहुँ धमार की धूम, कहूँ चौताल होत भल।
मच्यो फाग अनुराग जाग सो गयो सबै थल॥३७९॥
धमकत ढोल, बजत डफ़, झांझ अनेक एक संग।
मंजीरा करताल सबै जन रँगे एक रंग॥३८०॥
गावत भाव बतावत नाचत लोग रंगीले।
बाल युवक अरु वृद्ध भए इक सरिस रसीले॥३८१॥
कहुँ गृह भीतर सों युवती तिय गावत फागहिं।
ढोल मंजीरा के संग, जनु जगाय अनुरागहि॥३८२॥
बाहर सों फगुहार जुरे जुव जन रस राते।
उनके लेत बिराम तुरत जे सब मिल गाते॥३८३॥
होत सवाल जवाब जोड़ के तोड़ फाग सन।
लाग डांट मैं यों बीतत निशि रम्य अनेकन॥३८४॥
बरु बहुदिन चढ़िबे लगि फाग बन्द नहिं होतो।
इक दल हारत जबहिं होत तबहीं सुरझोतो॥३८५॥
ज्यों ज्यों आवत निकट दिवस होरी को या विधि।
त्यों त्यों उमड़त ही आवत आनन्द पयोनिधि ॥३८६॥
अरराहट कबीर की चहुँ दिशि परत सुनाई।
बाहर गाँवन के युवती जहँ परत लखाई॥३८७॥
सन्ध्या रजनी समय होलिका इन्धन संचय।
हित, नव युवक सहित बालकगन अतिसय निर्भय॥३८८॥
किये गुट्ट, अरु लिये शस्त्र चुपचाप बदे थल।
देशी जन के घर अथवा खेतन मैं जुरि भल॥३८९॥
लूटत वेरहून के काँटे छप्पर औ टाटिन।
चोरी त्यों बरजोरिन चलत चलावत लाठिन॥३९०॥
तिनसों छीनत लोग प्रबल बीचहिं मैं लरिभिरि।
पै नहिं काढ़त कोऊ जात जब होरी मैं गिरि॥३९१॥
गाली और गलौजन की तौ गिनती ही नहि।
रहत उन दिननि माहि जाति मानी मन भावनि॥३९२॥
पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५९
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