पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५८३

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जय इन्द्र ईश, हरि, विधि, समान।
जय छमा सिन्धु करुना निधान॥
जय सुमुखि सरोजिनि सुभग कन्त।
जय प्रगटावन बरखा बसन्त॥
भय हरन पाप, रुज, तम, हिमन्त।
निज भक्तन सुखदाता अनन्त॥
जय जगत प्रकासक जग अधार।
सहजहिं चारौ फल देनहार॥
सो अवसि प्रेमघन अति उदार।
हरि हैं मेरे दुख दोष भार॥

भैरवी


जय २ जय दिनकर तम हारी।
जय जग मंगल कारी॥
जय प्रतच्छ परमेस प्रभाकर।
देव सहस करधारी।
पालत प्रगट रूप सों तुम प्रभु
विपुल सृष्टि यह सारी॥
निज भक्तन पर द्रवत सहज तुम
देत अमल फल चारी॥
बिनवत पानि पसारि प्रेमघन
हरहु नाथ भय भारी॥

तेरी अलबेली चाल मोहे मेरो मन लीनो रे॥टेक॥
लटकाली काली घुघराली चमकाली चित चोरन वाली॥
मतवाली मानहु पाली व्याली, छबि छीनो रे॥
नैन मैन के बान निहारे रतनारे कारे मतवारे॥
कंज खंज करि मीन दीन बासहि जल दीनो रे॥