पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५५

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करत मरम्मत ढाल परतले तोसदान की।
बनवत नूतन हूँ मोर्चा करि सज दुकान की॥३२५॥
आतस-बाज अनेक मिले बारूद बनावत।
कितने आतशबाजी बनवत ठाट सजावत॥३२६॥

रामलीला

होत रामलीला हित बहु भांतिन तैयारी।
बिधिवत लीला साज सबै भाँतिन हिय हारी॥३२७॥
बनत सुनहरी पन्नी सों लंका बिशाल अति।
जगमगात जगमगा नगनि सों त्यों छबि छाजति॥३२८॥
होत नृत्य आरम्भ द्वै घरी दिवस रहत जित।
दशमुख को दर्बार लगत निश्चर दल शोभित॥३२९॥
जहँ पर जैसो उचित साज तैसोई तहाँ पर।
देखि होत मन मुग्ध मानवन को विशेषतर॥३३०॥
जानि एक जन कृत आयोजन यों विशाल अति।
गंवई की लीला जो बहु नगरीन लजावति॥३३१॥
होत महीनन के आगे सों सिच्छा जारी।
आवत दूर दूर सों सिच्छक गुनी सिंगारी॥३३२॥
ग्रामटिका बनिजात नगर वह उभय मास लौं।
भाँति भाँति जन भीर भार अरु चहल पहल सों॥३३३॥
बनत अयोध्या और जनकपुर शोभा भारी।
मोहित होत मनुज मन लखि लीला फुलवारी॥३३४॥
चलत सखिन को झुंड किये सिंगार मनोहर।
झनकारत नूपुर किंकिन सिय संग सुमुखि बर॥३३५॥
रंग भूमि की शोभा तो बरनी नहिं जाई।
होत बड़े ही ठाट बाट सों सबै लराई॥३३६॥
घूमत कहुँ काली कराल बदना मुंह बाये।
झुंड डाकिनी और साकिनी संग लगाये॥३३७॥