पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५४२

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आय बसी बिन्ध्याचल 'देवी कान्ति' अमल छवि छानी रे।
कृष्ण बहिन कृष्णा, काली, स्यामा, सुख सम्पत्ति दानी रे॥
विजया, जया, जयन्ती, दुर्गा, अष्टभुजा जग जानी रे॥
आदि सक्ति अवतार नाम इन कहि पूज्यो तुहिँ ज्ञानी रे॥
भक्तन के भय हरत देत फल चारौ सहज सयानी रे।
बरसहु कृपा प्रेमघन मैं नित निज जन जानि भवानी रे॥

दूसरी


काजर सी कजरारी देवि कजरिया॥
कारे भादवँ की निसि जाई करि बृज लोग सुखारी देवि।
कारे कान्हर की भगिनी तू जो सब जग हितकारी देवि।
कंस नकारे कारे हिय मैं उपजावनि भय भारी देवि क॰।
कारे विन्ध्याचल की वासिनि दायिनी जन फल चारी देवि।
काली ह्वै कारे महिषासुर अधहिं सहज संहारी देवि कज॰।
पाहि प्रेमघन जानि भक्त निज कारी अलकन वारी देवि॥११०॥

गृहस्थिनों की लय
स्थानिक स्त्री भाषा


काहे मोसे लगन लगाए रे सांवलिया॥टेक॥
लगन लगाय हाय बेदरदी, कुबजा के घर छाये रे सां॰॥
अस बेपीर अहीर जाति तैं, कौल करार भुलाये रे सां॰॥
सावन बीता कजरी आई, तैं न सुरतिया देखाये रे सां॰॥
झूँठ प्रेम देखाय प्रेमघन, भल हमके तरसाये रे सां॰॥१११॥

रण्डियों की लय


लगत मुरत तोरी नीकी रे सांवलिया॥टेक॥
सँवरी सूरत रस भरी अंखियां,
चितवन चोरनि जी की रे सांवलिया।
बरसि प्रेमघन रसहि सुनाओ,
तनक तान मुरली की रे सांवलिया ॥११२॥