पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५२०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४९६—

अतिहि प्यास, अमृत की आस, आय जनु अंटकी रे साँवलिया।
निरखनहार, देत विष धार, काढ़ि निज घटकी रे साँवलिया॥
मिलु अभिराम, प्रेमघन स्याम, पीर हरि टटकी रे साँवलिया॥५२॥

तीसरी


संग चलि चलि के, हिये हरि हलिके, ठग छलि छलि कै रे साँ॰॥
लै रस हाय! गये अनखाय, रहे टलि टलिकै रे साँवलिया॥
सूखी प्रीति, बेलि सब रीति, फूलि फलि फलिकै रे साँवलिया।
गुनि २ गाथ, प्रेमघन हाथ, रही मलि मलि कै रे साँवलिया॥५३॥

चौथी


भल छल किहले छली! गनि गनिकै, मीत बनि बनिक रे साँ॰॥
लखि ललचाय, मन्द मुसुकाय, प्रेम सनि सनिकै रे साँवलिया॥
करि बेचैन, दिहे सर नैन, सैन हनि हनिकै रे साँवलिया॥
लै मन हाथ, छोड़ि फेरि साथ, चले तनि तनिकै रे साँवलिया॥
भौंहन तान, प्रेमघन मान, ठान ठनि ठनिकै रे साँवलिया॥५४॥

विकृत विशेषता
खँजरी वालों की लय


औरन से रीति, राखि किहले अनीति, तै देखाय झूठी प्रीति, फँसाये
जटि जटि के रे सांवलिया॥
नैनवाँ नचाय, मन्द मन्द मुसुकाय, लिहे मनहिं लुभाय, ठाट
ठटि ठटिकै रे सांवलिया॥
गोकुल गलीन, लखि सहित अलीन, बिनये तैं बनि दीन, साथ
सटि सटिकै रे सांवलिया॥
ऐरे चित चोर! चित चोरि चहुँ ओर, किहे सोर नित मोर
नाव रटि रटिकै रे सांवलिया॥