पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५१८

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कहर काम की करद समान, बान सैना के रे गूजरिया॥
ऐसी अजब घाव ये करत, लगत नहिं टाँके रे गूजरिया॥
बरसत प्रेम प्रेमघन कौन मंत्र पढ़ि झाँके रे गूजरिया॥४५॥

दूसरी


बोलावै मोहिं नेरे रे सांवलिया।
फिरत मोहिं घेरे रे सांवलिया॥
रोकत जमुना तट पनिघटवाँ, सांझ सबेरे रे सांवलिया।
भाजत धाय हाय मुख चूमि, मिलत नहिं हेरे रे सांवलियां॥
कौन बचावै अब मोहिं, कोऊ सुनत नहिं टेरे रे सांवलिया॥
मेरी गलिन अली वह लँगर, करत नित फेरे रे सांवलिया॥
रसिक प्रेमघन मानत नाहिं, कहे वह मेरे रे सांवलिया ॥४६॥

रंडियों की लय


सुरत तोरी प्यारी रे सांवलिया॥
कारी कजरारी मतवारी, आँख रतनारी रे सांवलिया॥
चितवत काम कटारी सरिस, हाय हनि मारी रे सांवलिया॥
बरसत रस मीठी मुसुकानि मोहनी डारी रे सांवलिया॥
रसिक प्रेमघन प्यारे यार चाल तोरी न्यारी रे सांवलिया॥४७॥

ब्रजभाषा


जैसो तू त्यों प्यारी तिहारी, लगी भली यारी रे साँवलिया॥
कारे कान्हर के हित कुबजा, बिधि नै संवारी रे साँवलिया॥
ज्यौं चरवाहो तू त्यों चेरी, वह दई-मारी रे साँवलिया॥
राधा रानी संग नहिं सोहै, मीत मुरारी रे साँवलिया।
प्रेम प्रेमघन सम जन पाय, होय सुखकारी रे साँव॰॥४८॥

झूलन


प्यारी की झूलनि में प्यारी, उझुकि झुकि झूलै हो झूलनियां।
गोरे बदन सीप-सुत सहित, लखे हिय हूलै हो झूलनियां॥