चौथी
सोर करत चहुँ ओर मोर गन चल सखि! वृन्दाबन की ओर।
छाय रहे घनस्याम अवसि उत कहि नाचत मन मोर॥
ललचत लोचन चातक सम छबि पीयन हित चित चोर।
बरसत सो घन प्रेम प्रेमघन जनु आनन्द अथोर ॥४॥
गृहस्थिनियों की लय
सिर पर सही रे ओढ़नियाँ ओढ़े खेलै कजरी॥
हिलि मिलि के झूला संग झूलै सब सखी प्रेम भरी।
सजी प्रेमघन सावन के सुख मिरजापुर नगरी॥५॥
दूसरी
रिम झिम बरसै रे बादरिया मोरी चादरिया भीजी जाय।
कहाँ जाय अब हाय बचौ मैं! दैया! जिय घबराय॥
लै छाता तर, छाती से लगि, प्रीति रीति सरसाय।
पिया प्रेमघन! पैयाँ लागौं बेगि बचावो आय॥६॥
'नटिनों*[१] की लय'
बन बन गाय चरावत घूमो! ओढ़े कारी कमरी।
तुम का जानो रस की बतियाँ? हौ बालक रगरी॥
बेईमान! दान कस माँगत गहि बहियाँ हमरी?
सीखौ प्रेम प्रेमघन! अबहीं, छोड़! मोरी डगरी॥७॥
दूसरी
नैना पापी मानें नाहीं प्यारे! ये काहू की बात।
लाख भाँति समझाय थके हम करि करि सौ सौ घात॥
- ↑ *नट नामक एक जंगली जाति की स्त्रियाँ जो नाचने, गाने और वेश्या वृत्ति उठाने से यहाँ एक प्रकार मध्यम श्रेणी की रण्डी वा नर्तकी वारवधू बन गई हैं, जिनकी कजली गाने में कुछ विशेषता है और जिसका कुछ वर्णन इस पुस्तक के अन्त में "कजली की कजली" में भी हुआ है।