पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४८

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जनु लोमस ऋषि अरु बाबा आदम की जोरी।
सतयुग की बातन की मानहु खोले झोरी॥२३१॥
तुल्य वयस, रंग रूप, डील अरु शील सयाने।
निज निज रीति, प्रीति जगदीस दोऊ सरसाने॥२३२॥
है सुंघनी सम्बन्ध, दोउन मैं प्रेम परस्पर।
मित्रभाव सों होत सहज सत्कार मिले पर॥२३३॥
कबहुँ ज्ञान, बैराग्य, भक्ति की बात बतावत।
मोहत मन दोऊ, दुहं के दृग नीर बहावत॥२३४॥
छन्द प्रबन्ध दोऊ निज निज भाषा के कहि कहि।
 ऊबि ऊबि कै लेत उसासहि दोऊ रहि रहि॥२३५॥
मनहुँ पुरायठ अजगर द्वै सनमुख औचक मिलि।
क्रोध अंध है फुकारत चाहत लरिबों मिलि॥२३६॥
धर्म भेद पर कबहुँ विवाद बढ़ाय प्रबलतर।
झगरत बूढ़ बाघ सम दोऊ गरजि परस्पर॥२३७॥
लिखन पढ़न करि बंद भरे कौतुक तब हम सब।
सुनत लगत उनकी बातें, अरु वे जानत जब॥२३८॥
अन्य समय पर धरि विवाद तब उठि चलि आवत।
फेरि मोलवी साहेब सब कहँ सबक पढ़ावत॥२३९॥
मच्यो रहत नित सोर सुभग बालक गन को जहँ।
आज रोर काकन को करकश सुनियत है तहँ॥२४०॥

सिपाहखाना

पता सिपाहिन के डेरन को रह्यो न कतहूँ।
गिरी दलाने थे निसबत जिनमें वे कबहूँ॥२४१॥
बिछी रहत जिनमें कतार सों खाट अनेकन।
जिन पै बैठे ऐंठे बाँके रहत बीर गन॥२४२॥
प्रात समय नित न्हाय जुबक जोधा जित आये।
बटुआ सो दरपनी काढ़ि ककही मन लाये॥२४३॥