पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४७६

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चारौ फल देन हारि,
नेक दया दृग निहारि,
पाहि! प्रेमघन कृपालि!
भक्तन भय नासिनी॥१४०॥

नन्दी
रा॰ कल्यान


नन्दी! धनि तुम बरद अनन्दी॥
कल कैलास सृङ्ग पर विहरत,
विशद बरन वपु सुभ छवि छहरत,
जनु हिम शैल वत्स पय पीवत,
गङ्ग तरङ्ग सुछन्दी॥
चरत दिव्य औषधि तुम मुख सो,
करत जुगाली फेनिल मुख सो,
ज्यों ससि स्रवत सुधा हर सिर,
तुम सुखमा करत दुचन्दी॥
निदरि सिह तुम डकरत हो जब,
डरपत भाजत मूषक है तब,
गिरत गजानन बिहँसत गिरजा,
सग शिव आनन्द कन्दी॥
 सेवत रोज सरोज शम्भु पद,
गावत जापु विरद सुभ सारद,
प्रेम सहित नित सेस प्रेमघन,
विधि, नारद बनि बन्दी॥१४१॥

पद


कौने टेरत राधा रानी
आई दही बेचबे तू इत, काके हाथ बिकानी॥