धर्म ग्लानि जब होत जगत मैं
रूप अनूपम धरत उंजारे।
पापी जन गन हनि प्रभु सहहिं,
करहु सदा साधून सुखारे।
नाना लीला ललित लखावहु निज,
निज भक्तन बारहि बारे।
जदपि जगत निवास तऊ,
अवतरत जगत बनि मुनि जन प्यारे।
बरसह परम पवित्र प्रेम निज,
सदा प्रेमघन मनहिं सिंगारे।
दयादृगन लखि हरहु सकल अघ
पाहि पाहि हे पाहि मुरारे।१३१॥
नृसिंहावतार
जय जय जय हरि! नर-हरि बपु धारी।
दीनबंधु करुणा के सागर, भक्तन के भयहारी।
सटा छटा छहरत नभ छ्वै जनु, ऊई केतुकी क्यारी।
अट्टहास कै प्रगट भये चट, खम्भ पट्ट सों फारी।
मनहु काल को काल बदन, बिकराल बाप अति भारी
गरजत प्रलय मेघ सम सुनि, जिहि भाजे असुर दुखारी।
पटकि पछारयो हरिनाकसिपु खल, दलिमल उदर बिदारी।
प्रान दान दीन्यो निज दासहि, संकट सरवस टारी।
उर लगाय चाटत प्रहलादहि, आनन्दमगन मुरारी।
सदा हृदय मो सोइ प्रेमघन, चिन्ता हरहु हमारी।१३२॥
वामनावतार
जय वामन तन धरन, सरन असरन
हरि! सुरगनहित असुरारी।