पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४६३

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करत नित ही नित नहीं नहीं, नहीं मालूम परत कछु-मन
की तेरे कौन ठान ठानी जानी॥
श्री बद्रीनारायन कह दे-हाँ हंस कर हमने मानी॥१०८॥

अरे नटखट निरदई दई॥टेक॥
कुटिल कटीली डारिन हित फूलन गुलाव पठई।
नहिं चन्दन से तरु हित सुमनावलि सरस विकास बनई॥
कर हरचन्द मन्द चन्दै छबि छाजत छीन छई,
दमकावत दुति दूनी कर छुद्रन तिलसी तरई॥
लोभी मूढन धन दानी बुधजन दीनता भई,
प्रेमी रसिक जनन वियोग सठ सुमुखि संयोग सई॥
लखि अबिबेक अनेक अनीतिन यह जिय जान लई,
समझि न परति प्रेमघन तेरी रचनि आचरज मई॥१०९॥

चाल पलटत नित नई नई॥टेक॥
लखियत जामा पाग न पटुका झगा न मिरजई,
घड़ी कोट पतलून बूट टरकी टोपी डटई॥
कर तलवार तुपक भाला सर कमर कटार कई
अब तो काफ़ी है एक बेत छड़ी बारनिश भई॥
रही बीरता ऐंड सूर सामंतन की इतई,
घँसि साबुन सुरमा मिस्सी बालन सी मेहरई॥
नहिं वह धर्म कर्म न ज्ञान, तप, योग जाप जपई,
अब तो बैर कपट छल मिथ्या पातक बेलि बई॥
तब को कहं वह तिलक सुमिरनी चौका चक्कर छूत छई;
अब तो मद्यपान होटल संग भोजन बिसकुटई।
नारिन की सारी कुर्ती चोली लौं छीन लई,
पहिनावत हैं गौन मेम कर इसकूलन पठई।