पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४५५

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दरसत दसन दबी दुति दामिन,
लाजत निरखि काम कल कामिन।
मन्द मराल मत्त गज गामिन,
सुमन सरिस सुकुमारी॥
श्री बद्रीनारायन कविवर,
गावत राग बिहाग सुभग स्वर।
फेरत बिरही रसिकन के गर,
चोखी चारु कटारी॥८८॥

छिपाये छिपत न नैन लगीले॥टेक॥
लाख जतन करि इन्हैं दुरावो, दुरत न प्रेम पगीले॥
उघरे फिरत शंक नहिं लावत, निज प्रिय रूप गठीले।
बद्रीनाथ यार दिल जानी, के दृग रंग रंगीले॥८९॥

सखी अपने इन नैनन की यह बान॥टेक॥
सपनहुँ सुख की आस न इन ते दुसह दुखन की खान।
नेक न भय मानत उर अन्तर लोक लाज कुल कान॥
हटकत नेक न माने तब तो, गे बरबस हठ ठानि।
नफा करन हित प्रेम नगर में, भली उठाई हानि॥
दिलबर को दरसन नहिं पायो फिरे जगत रज छानि।
बद्रीनाथ भये बिसवासी, आज परे मोहे जानि॥९०॥

सुखमा सुखद सरद सरसाई॥टेक॥
देखत देस देस दिसि २ दुति, दूनी देत दिखाई॥
फूलो कास अकास सकल थल, बिमल छटा छिति छाई।
सुनियत सोर मोर बागन बन, सरिता सहज सिधाई॥
उदित अगस्त भये मन रंजन, खंजन परत लखाई।
बिकसे बिमल बारि बारिज जुत, सर सोभा अधिकाई॥