पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४५१

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सरस सुखद छवि छाई ऋतुपति, चलि मिलियै ब्रजराज साज सजि,
श्री बद्रीनारायन जू इहि अवसर॥६९॥
उन संग खेलनि जनि जैयै—निपट हठी नटखट नटनागर;
छल बल के लैहै लुभाय॥टेक॥
श्री बद्रीनारायन सजनी, जोबन जोर जवानी तू पै,
लगि न जांय ये नैन कहूँ॥७०॥

दूसरे चाल की


(हो) जल भरन मैं न जाउँ आली,
लंगर डगर बिच रगर करत नित ही नटवर बनमाली॥टेक॥
श्री बद्रीनारायन कविवर, बंसी तान सुनाय अधर धर,
व्याकुल करि बिमलाय लेत ओढ़े सिर कामर काली॥७१॥

देस की ठुमरी


सखी री चलियत घूँघट घाल॥टेक॥
छीन हीन नित होत कलानिधि पेखि पेखि दुति भाल॥
पावजेब किंकिनि धुनि सुनि सुनि, भाजत लाज मराल॥
छिप्यो मृनाल ताल बिच जल के, लखि जुग भुजा विशाल॥
बद्रीनाथ हाथ मलि मलि नित निरखत रहत गुपाल॥७२॥

कृपानिधि नाम की धरि लाज, दया दृग फेरियो हो राज॥।टेक॥
यद्यपि हौं खल नीच अधम पै तुम हरि दया जहाज॥
बद्रीनाथ जांव अब तुम तजि कितै गरीब निवाज॥७३॥

सोवत सोवत भयो भोर सुगुयां (रे जगाये ना जाग)
मोरी नीद बैरन भई रे॥टेक॥
नभ लाली बोलत चटकाली, करि करि चहुँ दिशि सोर॥
बद्रीनाथ गयो उठि बेगहि धौं कित उठि ना जानूं केहि ओर॥७४॥