पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४४६

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सच्चित आनन्द रूप,
माया तुव अति अनूप,
किंकर सुर भूप तीन देव चन्द तारे॥
निरमल नित निराकार,
व्यापक जग निराधार,
अंसहि सों एक लाख लाख लोक धारे॥
बरसहु निज प्रेम,
प्रेमघन मन मैं राखि छेम,
सर्वशक्ति युक्त इष्ट देवता हमारे॥५८॥

 

जय जय व्यापक ब्रह्म सनातन
जय जय ओंकार वर नामी।
जय जय अलख अनादि, अतुल अज,
अविनासी, अनन्त जग स्वामी॥
नित्य, निरञ्जन निराकार,
निरवयव, सकल उर अन्तरयामी।
जय जय वेदवेद्य, विभु, निर्गुन;
जगदाधार, अतर्क्य, अकामी॥
बरसहु दया बारि करुनाकर
नित्य प्रेमघन मन विस्रामी॥५९॥

 

जय सच्चिदानन्द मय व्यापक
अखिल लोक नायक, करुनाकर।
जयति अनादि अनन्त अनूपम
अति बिसाल अरु अति सूछमतर॥