पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४३९

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पीर। सांवरी सी सूरति दिखलावत, वह उपजावत मन बद्रीनारायन नटवर नट, बेपीर अहीर ॥१९॥ anc अब सखियाँ अखियाँ उल्झानी।।टेक।। नहिं भूलत चित तें वाकी छबि, मुख मोरनि मंजुल मुसुक्यानी। नासा मोरि विलोकनि बाँकी, लीनो मन भौंहन को तानी॥ बदरीनारायन पिय औचक मार गयो जादू जनु आनी॥२०॥ ढूंढत श्याम फिरत कुञ्जनि बिच, कित वृषभान किसोरी रे॥टेक।। चम्पक, केसर कुन्दन हूँ ते, सरस सरस तन गोरी. रे। सिसु मृग दृगवारी ससि बदनी, नवल वयस अति थोरी रे॥ कहाँ गइ छन छवि हरनी चितवत ही चित को चोरी रे। बदरीनारायण कित भाजी लै मत भौंह मरोरी रे॥२१॥ तोरी साँवरी सूरतिया नाहीं भूले रे॥टेक।। मृदु मुसुक्याय, नचाय नयन सर, बस कीनो रे ये करत रस बतियाँ। बदरीनारायन छबि छाकी जेहि लखि रे लाजै मैन मूरतिय। ॥२२॥