संग संग ही भृङ्गी भी गुंजार मचाती जाती थी।
नर किन्नर गन्धर्व मात्र का गुज्जन गर्व गिराती थी॥
चित्र लिखित सा दर्शक दल तन्मय सा हुआ दिखाता।
अनुभव कर आनन्द ब्रह्म अपने में आप समाता॥
चहल पहल कलरव कोलाहल सुनकर चित ललचाया सा।
सब को बेसुध जान हुआ आनन्द मग्न मन भाया सा॥
धन्य सुअवसर जान क्रूरमति कूटनीति का अनुगामी।
पहुँचा लेकर सैन सुसज्जित संग सेन भट संग्रामी॥
लगा अमित उत्पात मचाने द्विज दल को दलने मलने।
निर्बल जान कर चंगुल में कस उर विदार शोणित चखने॥
सेना जो बहरी जुर्रे शिकरे सैनिक मिल टूट पड़े।
डपट डपट कर दीन खगों को निपट निडर निर्दयी बड़े॥
पकड़ मारने नोच नोच कर लगे चाभने चाव भरे।
देख दुर्दशा यह विहंग संकुल व्याकुल हो उठे डरे॥
बेचारे बहुतेरे दब छुप गये शेष उड़ भाग चले।
चिल्लाते निज प्रान बचाते हुए वहाँ भय देख टले॥
चला वेग से अनिल वहाँ से ऊब अनीति न देख सका।
कंपित हुआ सदय तरु का दल हिला हिला कर कर दल का॥
उठकर मैं भी चला वहाँ से सीधे रमने में आया।
देखा तो सब ओर अनोखा फीकापन फैला पाया॥
अस्ताचल चूड़ा अवलम्बित मरीचि माली मंडल की।
मन्द मनोहरता हो गई प्रकाशित प्रभा हुई हलकी॥
लगा दिखाई देने जिससे स्वच्छ स्वरूप सहज ससि का।
जैसे गोले उज्वल कागज़ पर हो पड़ा दाग मसि का॥
लगा सोचने मन में मैं यह विधि विचित्रता कैसी है।
"तले दिया के अंधकार" की सुनी कहावत जैसी है॥
इस प्रकार आकर के भीतर तिमिर अंश कैसे आया।
सुन्दर सुमन गुलाब कंटकों में ज्यों विधि ने विकसाया॥
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