पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४२

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पूजा करत देर लौं बनत वैष्णव भारी।
पढ़ि रामायन रोवत है पै अति व्यभिचारी॥१५३॥
बिन पाये कछु नजर मिलावत नजर न लाला।
लाख बीनती करौ बतावत टालै बाला॥१५४॥
लिये हाथ मैं कलम कलम सिर करत अनेकन।
गड़बड़ लेखा करत सबन को धारि कसक मन॥१५५॥
कागद की कुछ ऐसी किल्ली राखत निज कर।
करै कोटि कोउ जतन पार नहिं पाय सकत पर॥१५६॥
मालिक बैठि जहां निरखत बहु काजनि गुरुतर।
करत निबटारो त्यों प्रजान को कलह परस्पर॥ १५७॥
दूर ग्राम की प्रजा करम-चारि-गनहू सन।
अरज गरज सुनि देत उचित आदेस ततच्छन॥१५८॥
अन्य अनेकन काज बिषय आदेस हेतु नत।
रहे प्रधानागमन मनुज जिहि ठौर अगोरत॥१५९॥
तहँ नहि नर को नाम गयो गृह गिरि दै पटपर।
मुद्रा कागद ठौर रहो सिकटी अरु कंकर॥१६०।।

चौक

जिन बैठकन सहन में प्रातःकाल जुरे जन।
रहत प्रनाम सलाम करत हित सावधान मन॥१६१॥
रजनी संध्या समय जुरत जहँ सभा सुहावनि।
बिविध रीति समयानुसार चित चतुर लुभावनि॥१६२॥
कथा, बारता, रागरंग, लीला, कौतुक मय।
मन बहलावन काम काज हित सहित सदामय॥१६३॥
जगमगात जहँ दीपक अवलि रहत निसि सुन्दर।
चहल पहल जित मची रहत नित नवल निरन्तर॥१६४॥
कास तहाँ अरु घास जमी दूहन पर लखियत।
उरत अजामिल पात इतै सों उत अब घूमत॥१६५॥