पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४१९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३९२—

अलंकार गजमुक्ता फल सम, कुसुम कुंआँट लखाते थे।
पन्ने के लटकन से लटके, बृन्त रसाल सुहाते थे॥
शाल मौर चामर बितान सी, तनी मालकाकुनी लता।
वने बराती सभी विटप, अटवी धारे नव सुन्दरता॥
बोल उठा कोकिल नकीब, बज चला शिवारुत का बाजा।
जंगल ने मंगल का मानो, सबी साज सचमुच साजा॥
उमड़े उदधि उतंग तरंगिन, शोभा में अब तक डूबा।
चंचल चला छोड़ मलयाचल, इधर दक्षिणानिल ऊबा॥
बात बात में सब थल की, शोभा निहारता कानन में।
पहुँचा वह बर बाजि बना, संचलन मचाता तरु गन में॥
शोभा बढ़ी अधिक ऐसी, कुछ जिसका वारापार न था।
बस्तु न थी कोई ऐसी, जिस पर छाया सिंगार न था॥
लगा सोचने में सब इन्हीं, बस्तुओं को देखता सदा।
रहता हूँ पर कभी न पाई, इनपर ऐसी खिली प्रभा॥
कारन इसका क्या है मेरे, नहीं समझ में आता है।
कुछ न समझता था जिसको, वह भी अतिशय मन आता है॥
पड़ी निशाकर पर जब आकर, अचाँचक आँखै मेरी।
माना मन ने शमन हुईं, शंकायें जो थीं बहुतेरी॥
यह मयंक महिमा है जिसने, सब जग रम्य मनाया है।
शोभा कर वह औरों को, शोभा देकर अति भाया है॥
चतुर चकोर चारु लोचन कर, अचल देखता चाह भरे।
उसे उच्चतर प्रेम दिखाता, भाता धीरज धीर धरे॥
निज प्रिय मुख मण्डल मधुरिमा, मंजु अमीरस पीता है।
औरों पर नहिं आँख उठाता, देख उसी को जीता है।
परम अनूपम प्रेम पात्र भी, पाया है उसने ऐसा।
इस विरंचि रचना विशाल में, और नहीं कोई जैसा॥
वाह वाह क्या सुखमा है जो, कहने में नहिं आती है।
ज्यों २ उसे देखिये त्यों त्यों, नई छटा छहराती है।