पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४१२

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जो दिल्ली तुम लखहु सो विरचित शाहजहान।
सहि सौ २ साँसति सोऊ रही होत हतमान॥
राजधानि जो हिन्द की रही हजारन साल।
जाके हिय नित विहरतहिं रहे बिबिध भूपाल॥
लुटी पटी बहु बार जो उजरी बसी बिलाय।
बहु अन्यायी भूप जित किये अमित अन्याय॥
सो उजारि नगरी बसी देहली नाम धराय।
राजधानि पदहीन अति दीन बनी बिन राय॥
राजमहल बहु खोय जित बन्यो दुर्ग मनहूस।
कोहनूर जामें न अब नहीं तखत ताऊस॥
जो अंगरेजी राज लहि डिलही बनी सोहाति।
दिन प्रति दिन जाकी छटा निखरत ही सी जाति॥
तऊ सोच सालत हिये जाके बलम वियोग।
रहयो, सोऊ श्रीमान् को लहि संयोग सुभ योग॥
मन भायो पिय पाय सो फूले अंग न समाय।
चिर दिन की खोई प्रभा पाय रही मुसुक्याय॥
राज तिलक बहु नृपन के भये जहाँ बहु बार।
कबहुँ न पै ऐसी सजी करि दिल्ली सिंगार॥
कोहनूर लखि आप के राजमुकुट पर आज।
समुझत निज सौभाग्य को फेरि मिलन महराज॥
नव भारत दिल्ली नई नयो सज्यो सब साज।
नयी भाँति अभिषेक तुव हे नव भारत राज॥
नकल भई द्वै बार जहँ लहन राज अधिकार।
असल राज अभिषेक तुव भारत में इहि बार॥
साँचहुँ सब सामन्त सों ह्वै तुम वन्दित आज।
साँचे भारत राज राजेस बनहु महराज॥
सखी करह निज भारती प्रजा सकल दुख टारि।
बरन भेद मत भेद अरु न्याय बिभेद निवारि॥