पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४०३

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करत सक्ति अनुरूप जो उत्सव बिबिध प्रकार।
सो नहिं तुमरे जोग यह निश्चय राजकुमार॥
बाहर इनकी दसा दरसात मनोहर पीन।
पर जो भीतर देखिये सबही विधि सों हीन॥
रोग सोग दुष्काल सों आरत भारत आज।
सकत कहा सत्कार करि ये तुमरो युवराज॥
पर जौ इनके हृदय में पैठि लखहु धरि ध्यान।
अमल प्रेम उत्साह तहँ पैहौ बिन परिमान॥
सबै गुनन के पुञ्ज नर भरे सकल जग माहिं।
राजभक्त भारत सरिस और ठौर कहुँ नाहिं॥
लहि तिन दीन प्रजान को अमल प्रेम उपहार।
तदपि तुच्छ तौ हूँ अधिक गुनियै हरखि कुमार॥
अरु अलभ्य अनमोल गुनि लेहु प्रजा आसीस।
युवरानी संग सुख सहित जियहु असंख्य बरीस॥
राज दुलारी! लाड़िली! युवरानी! गुन खानि।
अचल सुहाग रहै सदा तेरो जग सुख दानि॥
जुग जुग जीवहु यह जुगल जोरी लहि आनन्द।
पुत्र पतोहू पौत्र संग हीन सकल दुख द्वन्द॥
तेरे अरि हेरे न कहुँ मिलें जगत के माहिं।
राज तिहारे बीच दुख प्रजा अनीति हेराहिं॥
बिना बिघ्न भारत भ्रमन करि पहुँचहु निज देस।
भारतेश सो कहहु यह भारत को सन्देस॥
माँग्यो बारम्बार जो वह शुभ अवसर जानि।
माँगत सोई आप सों फेरि जोरि जुग पानि॥

रोला


चहत न हम कछु और दया चाहत इतनी बस।
छूटैं दुख हमरे, बाढ़े जासों तुमरो जस॥