पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४००

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दुर्ग मानधाता तथा रोहिताश्व अब देखि।
कालिञ्जर, चित्तौर त्यों दसा देवगढ़ पेखि॥
पाय सकत आनन्द को निरखि दसा अति हीन।
बिबिध नगर कन्नौज से हाय आज छबि छीन॥
साठ सहस नर जहँ रहे नित प्रति बेंचत पान।
तहँ की जन संख्या करे कैसे कोउ अनुमान॥
दिल्ली मैं किल्ली बची भग्न पिथौरा धाम।
सकल नगर प्राचीन को बच्यो पुरानो नाम॥
खँडहर कै, बिपरीत निज नाम दृश्य दिखराय।
दर्शकगन मन माहिं उपजावत करुना भाय॥
जहँ देवालय दिव्य नित राग रंग सो पूर।
सब सुख साज सजे लहत हाय उड़त तहँ धूरि॥
सूनी मस्‌जिद कहुँ, बने कहुँ मकबरे लखाहिं।
अरब और ईरान के टुकरे से दरसाहिं॥
बने अनेक प्रकार जे नगरन भवन नवीन।
उनमैं कहूँ न लखि परति भारत छवि प्राचीन॥
नहिं पूरब से नगर, नहिं जनपद, तीरथ, धाम।
नहिं बन, नहिं तप संस्थल बीत राग विश्राम॥
ऋषि त्रिकाल दर्शी न कहुँ मुनि जन इतै लखाहिं।
आतमज्ञानी, सिद्ध योगी नहिं प्रगट दिखाहि॥
धर्म्म कर्म्म रत तपोधन बिबुध बिप्र न लखात।
दया, दान, रन बीर छत्री नहिं कह सुनात॥
धन कुबेर वर वैश्य के वृन्द न अब या ठौर।
शिल्पकला कुल कुशल को शुद्ध गुनी सिरमौर॥
सबै बरन सब आश्रम की अब एकै चाल।
सब स्वधर्म्म विपरीत पथ पथिक बने यहि काल॥
कहँ धर्म्मानुष्ठान कहँ लुटत दान दरसाय।
कहाँ यज्ञशाला रुचिर रचना परत लखाय॥