पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३९९

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पूरब की कासी न वह, यह जो तुमैं दिखाति।
अलका अरु कैलास तैं सरस कही जो जाति॥
स्वर्णमयी नगरी सुभग ताको सूचक नेक।
अहै कनक मन्दिर यहै विश्वनाथ को एक॥
नष्ट भयो कै बार को थप्यो अनेकन ठौर।
दुखद अंश अवशिष्ट तिनके निरखहु करि गौर॥
माधव मन्दिर और माधव धवरहरा देखि।
सकहिं आप सहजहिं समझि उभय दसा सुबिसेखि॥
पिछली कासी पास मझली कासी की रेख।
सारनाथ निस्सार मैं खँडहर रूप धमेख॥
नहिं अड़तालिस कोस अब अवधपुरी विस्तार।
रामायन ही मैं मिलति वाकी छटा अपार॥
राजधानि जो जगत की रही कबहु सुख साज।
सौ पचास बिगहान मैं सो सिकुरी सी आज॥
प्रतिष्ठानपुर मध्य अब माटी ही की ढेर।
इक ईंटहु वा नगर की लहि न सकत कोउ हेर॥
श्री मथुरा, द्वारावती, इन्द्रप्रस्थ वह रूप।
पढ़ि भारत लखि सकत नहिं भारत छिति पर भूप॥
नहिं पाटली, न हस्तिना, नहिं अवन्तिका सोय।
जासु कथान पुरान सुनि अतिसय अचरज होय॥
टुटीं, फुटीं, लूटी गई, लटी अनेकन बार॥
उन नगरिन लखि हरखि को सकि है कौन प्रकार?
कहँ केशव, गोविन्द, कहँ सोमनाथ को धाम।
महाकाल शिवसदन कहँ, ज्वालायतन ललाम॥
थानेसर, परभास, पुष्कर अरु गया विलोकि॥
सहृदय को अस जो भला सकैं सोक हिय रोकि?
सहत महत, धारापुरी, नासिक नष्ट निहारि।
पाटन, कुन्ती नगर लखि सकै धीर को धारि?