पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३९०

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आनन्द अरुणोदय[१]



हुआ प्रबुद्ध वृद्ध भारत निज आरत दशा निशा का।
समझ अन्त अतिशय प्रमुदित हो तनिक तब उसने ताका॥
अरुणोदय एकता दिवाकर प्राची दिशा दिखाती।
देखा नव उत्साह परम पावन प्रकाश फैलाती॥
उद्यम रूप सुखद मलयानिल दक्षिण दिश से आता।
शिल्प कमल कलिका कलाप को बिना बिलम्ब खिलाता।
देशी बनी वस्तुओं का अनुराग पराग उड़ाता।
शुभ आशा सुगन्ध फैलाता मन मधुकर ललचाता॥
बस्तु विदेशी तारकावली करती लुप्त प्रतीची।
विद्देशी उलूक छिपने का कोटर बनी उदीची॥
उन्नति पथ अति स्वच्छ दूर तक पड़ने लगा लखाई।
खग वन्देमातरम् मधुर ध्वनि पड़ने लगी सुनाई।
तजि उपेक्षालस निद्रा उठ बैठा भारत ज्ञानी।
ध्याय परम करुणावरुणालय बोला शुभ प्रद बानी॥
उठो आर्य्य सन्तान सकल मिलि बस न बिलम्ब लगाओ।
बृटिशराज स्वतन्त्र्यमय समय व्यर्थ न बैठ बिताओ॥
देखो तो जग मनुज कहाँ से कहाँ पहुँच कर भाई।
धर्म, नीति, विज्ञान, कला, विद्या, बल, सुमति सुहाई॥
की उन्नति निज देश जाति, भाषा, सभ्यता, सुखो की।
तुम सबने सीखी वह बान रही जो खान दुखो की॥
बैदिक सत्य धर्म्म तजकर मनमाने मत प्रगटाये।
ऋषि त्रिकालदर्शी गन के उपदेश भूल दुख पाये॥


  1. भारतवासियों के ऊपर।