पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८६

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राज भक्ति को अति वृहत तासों छप्पर छाय।
ऊपर वाके राखियै जासों भय मिटि जाय॥
प्रतिद्वन्द्वी जन विघ्न के कीट नासिवे काज।
यथा जोग प्रतिकार को रहिय साजिये साज॥
निरलसता, दृढ़ता, जतन, उद्यम, सत्य विबेक।
सहित सदा उत्साह नित सेइय इन प्रत्येक॥
सावधान ह्वै रच्छियै या कहं उक्त प्रकार।
ईस कृपा करि सिद्धि तुहि दीन चलत इहि बार॥
होन चहत ऋतु सिसिर को बिन बिलम्ब अब अन्त।
लिबरल दल अधिकार मिसि आवत चल्यो बसन्त॥
जामैं प्रजा प्रतिनिधि सुखद सासन प्रथा फल लागिहै।
व्यापार निज देसी दिवाकर शिल्प कर लै जागिहै॥
परिपक्व पूरन पुष्ट करिहैं तिहि सकल भय भागिहै।
एडवर्ड सप्तम की कृपा निज प्रजन पर अनुरागिहै॥
नहिं अबही तासों कछू कारन हरख बिखाद।
निज कारज तत्पर रहिय नित प्रति विगत प्रमाद॥
सब कृषि फल दल साख सँग आनि धरिय इक साथ।
सार अंश निर्विघ्न जब लहियै अपने हाथ॥
ईस कृपा तैं सिद्ध करि लहिय जबै सुख स्वाद।
तब आनन्द मचाइयै ह्वै कै बिगत बिखाद॥
अबहिं मनाइय ईस जो इत अँगरेजी राज।
राखै थिर बहु दिवस लौं जो कारन सुख साज॥
राजकरमचारीन को देय सुमति सुभ नीति।
जे न बढ़ावैं प्रजा मैं वैमनस्य दुख भीति॥
होय सत्य जो प्रेमघन देत आज आसीस।
दया वारि बरसत रहै भारत पै जगदीस॥
सब द्वीप की विद्या कला विज्ञान इत चलि आवई।
उद्यम निरत आरज प्रजा रसि सुख समृद्धि बढ़ावई॥

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