(२)
सुहृद स्वागतम्
चिर दिन को चित चाह्यो आयो आज यह समय॥
जब जातीय जागृति लखियत निज स्वजनन महँ।
उत्साहित उद्धार आत्महित एकतृत तहँ॥
जहाँ प्रकृति अतिशय पवित्र थल विरचि बनायो।
सरस्वती गंगा यमुना सन आनि मिलायो॥
तीनौ तीनौ पाप हरनि चारौ फल दानी।
सब बिघ्ननि को हरनि सकल मुद मङ्गल खानी॥
जिन संगम सों तीरथ राज प्रयाग कहायो।
जासु नास नहिं कल्प अन्त हूँ बेद बतायो॥
राजत अक्षयवट जहँ सकल मनोरथ दायक।
कल्प अन्त मैं जो हरिहू को होत सहायक॥
पूर्व समय मैं जप, तप योग, यज्ञ बहु करि जहँ।
ऋषि मुनि सुरगन पाय मनोरथ हरषे मन महँ॥
ऋषिवर भरद्वाज जो पूरब पुरुष तुम्हारे।
तिन के आश्रम पर जो तुम सब आज पधारे॥
तौ निश्चय जानहु कै सिद्धि आप को मिलिहै।
तीर त्रिबेनी तुरत मनोरथ कलिका खिलिहै॥
कृत कारजता तुव आशा द्विजराज निहारे।
है आनन्द उदधि उमड़त उर आज हमारे॥
निज २ वर्ग अभ्युदय लखि को नहिं हरषाई।
नित हितकर प्रिय के हित निज घर जानि अवाई॥
को नहिं दैहै सौ २ स्वागत सहज सुभायन।
यथाशक्ति सत्कार जोरि कर सहित उपायन॥